Saturday, October 24, 2009

"LE JUSTES"by अल्बेयर कामू-हिंसा के रास्ते क्रांति या क्रांति के लिए हिंसा की बहस

10/21/09


बीसवीं शताब्दी के महान चिन्तक और लेखक अल्बेयर कामू के नाटक le justes का हिंदी रूपांतर "न्यायप्रिय"(अनुवाद-प्रो.शरतचंद्रा और सच्चिदानंद सिन्हा)का सफ़ल मंचन पिछले ७-१० अक्टूबर को पटना के कालिदास रंगालय में नत्मंड़प नाट्य-समूह द्बारा किया गया.इस नाटक का निर्देशन संभाला था जाने माने रंग-निर्देशक और रंगकर्मी परवेज़ अख्तर साहब ने.'न्यायप्रिय'के प्रस्तुति आलेख की परिकल्पना हिन्दुस्तान की गुलामी और उससे मुक्ति के लिए की जा रही हिंसक क्रांतिकारी गतिविधियों को ध्यान में रख कर की गयी है.'न्यायप्रिय'का कथानक एक भूमिगत क्रांतिकारी संगठन के इर्द-गिर्द घूमता है.गुलाम भारत में यह क्रांतिकारी दल अँगरेज़ कलेक्टर की हत्या की योजना बनाता है,जिसमें शामिल होने के लिए कनाडा में फरारी जीवन जी रहा तेजप्रताप यहाँ आता है.शेखर जो दल में मस्ताना के नाम से मशहूर है,निश्चित कारवाई के दिन अँगरेज़ कलेक्टर की बग्घी में बच्चों को देखकर बम नहीं फेंक पाता.दल में इसको लेकर एक तीखी बहस शुरू हो जाती है.दमयंती दल की एक पुरानी सदस्य है,जो शेखर से प्रेम करती है.दल प्रमुख बलदेव दो दिन बाद बम फेंकने की योजना बनाता है.कलेक्टर की हत्या के बाद शेखर गिरफ्तार हो जाता है.जेल में खुफिया विभाग का अधिकारी शेखर को कई प्रलोभन देता है.शेखर से मिलने मारे गए अँगरेज़ कलेक्टर की पत्नी और पंडित त्रिवेदी भी पहुँचते हैं ताकि वह प्रायश्चित कर ले.शेखर को फांसी लगती है.फांसी के दिन एक गहरी पीडा से गुजरती दमयंती अगला बम फेंकने और फांसी के तख्ते तक पहुँचने का निश्चय करती है.(ब्रोशर)-यद्यपि 'न्यायप्रिय'क्रान्ति की हिंसा पर बहस है या फिर हिंसक क्रान्ति पर एक बहस.यह नाटक अपने आलेख और परिकल्पान में भले ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय में उपजे एक भूमिगत क्रांतिकारी दल के सदस्यों के बीच क्रान्ति के लिए हिंसा कितनी जरुरी क्यों जरुरी के पक्ष और विपक्ष के तर्कों को सामने लाता है पर मौजूदा हालात में आज जब नक्सली हिंसा की बढती घटनाओं के बीच बुद्धिजीवी वर्ग में मत-वैभिन्य हो रखा है तब इस नाटक के बहाने इस बात पर विचार करना अधिक जरुरी हो जाता है कि-

-क्या क्रान्ति के लिए हिंसा जरुरी है?

-अनदेखे न्यायपूर्ण समाज के भविष्य के लिए वर्तमान को लहूलुहान करना कहाँ तक न्यायसंगत है?

-क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसक तरीके क्या मानवीय कष्टों को कम करते हैं?

-क्या पार्टी के कायदे और निर्देशों के बीच अपने दिल और मानवीय संवेदनाओं की कोई जगह नहीं होती?नाटक में तेजप्रताप और शेखर के बीच की बहसें सार्त्र और कामू के समय की परिस्थितियों की ओर इशारा करती लगती है,कामू भी १९३५ में फ्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और बाद में अपने स्वतंत्र विचारों के कारण पार्टी से निष्कसित कर दिए गए.बहरहाल,नाटक पर लौटते हैं.नटमंडप के कलाकारों जावेद अख्तर खान ,मोना झा,विनोद कुमार,अजित कुमार निवेदिता,बुल्लू,,राजू,अनिश अंकुर आदि ने अपना शत-प्रतिशत अभिनय योगदान देकर इस नाटक को सफल बनाया.सबसे जरुरी बात जो यहाँ कहनी महत्वपूर्ण है वह ये कि पटना के कालिदास रंगालय में जिस स्थिति में नाटकों का मंचन हो रहा है और जिस अभाव में नाट्य-कला को यहाँ जीवित रखे हुए हैं वह काबिले-तारीफ़ है.उन्हें सैल्यूट करना चाहिए.बिहार की मिटटी ने अनेक रंग-विभूतियों को पैदा किया है और आज भी यहाँ परवेज़ अख्तर,जावेद अख्तर,मोना झा,विनोद कुमार,संजय उपाध्याय,राजीव रंजन आदि नामचीन रंगधुनी कार्यरत हैं जो राष्ट्रीय-अंतर्राश्तिर्य स्टार पर बिहार के रंगमंच को पहचान दिला रहे है पर बिहार का कला और संस्कृति मंत्रालय पता नहीं किस ओर आँखें मूंदे बैठा है.

अंत में ,परवेज़ अख्तर इस जटिल और बहस कायदे की बहस वाली वैचारिक नाट्य-प्रस्तुति के लिए प्रशंसा के पात्र हैं.न्यायप्रिय सच्चे अर्थों में le justes का सृजनात्मक प्रयास है.

9/25/09

'मि.योगी' का जायका ख़राब करेगा -वाट्स योर राशि'




आज हमारे अगल-बगल के सिनेमाघरों में हाई-फाई निर्माता-निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की 'वाट्स योर राशि' रिलीज हो गयी है..जैसा कि शुरूआती सिनेडियों ने बताया है ,लगता है आशुतोष इस बार बिना वजह फिल्म बना बैठे हैं.'...राशि' का नाम पहली बार सुनते ही दूरदर्शन के बहुचर्चित धारावाहिक 'मि.योगी' की याद आगई थी,और साथ ही यह आशंका भी कि कहीं उस क्लासिक सीरियल का बंटाधार न हो जाये.ऐसी आशंका वाजिब थी क्योंकि मि.योगी की कहानी भी लगभग यही थी कि एक बांका सजीला नौजवान अमेरिका से अपने लिए एक अदद कन्या विवाह हेतु ढूँढने इंडिया आता है और हर एक लड़की के साथ उसका जो साक्षात्कार होता है उससे कॉमिक सिचुएशन बनती है और वह भी बिना किसी मुहँ-बिचकाऊ ऐक्टिंग अथवा फूहड़ संवादों के.यही इस धारावाहिक की जान थी जो इसे क्लासिक बना गयी.एन आर आई भारतीय की भूमिका तब के चर्चित टीवी कलाकार मोहन गोखले ने निभाई थी.बहरहाल,'वाट्स योर राशि की कथा तो वैसी नहीं पर आशुतोष अतिशय प्रयोगधर्मी डाईरेक्टर तो नहीं ही हैं ना उन्हें ऐसे प्रयोगों में कूदना था बिना किसी धाँसू तैयारी के.आशुतोष बड़े निर्देशक हैं वह बड़े कलाकारों को लेकर फिल्म बनाते हैं.बड़े बजट की फिल्म बनाते हैं.बड़ी महाकाव्यात्मक ऊँचाईयों(?)वाली कथाओं को अपनी फ़िल्मी कथा बनाते हैं.हर बार उनका नायक महा(बड़ा)अभिनेता होता है मसलन-आमिर खान,शाहरुख़ खान,ह्रितिक रोशन,फिर ऐसे में इस कथा में हरमन बेचारा तो छोटा ही ठहरा..खैर अपना क्या है एक और फिल्म लग गयी इस हफ्ते इसका भी आस्वाद तो होना ही था...सिनेडियों को तो सिनेमा का बहाना चाहिए..

9/2/09

"Gloomy sunday"-एक महान हत्यारी कविता.


gloomy sunday वह गीत है,जिसे सुनकर करीब २०० लोगों ने आत्महत्या कर ली थी.इस गीत का लेखक था-हंगरी का "लाजेलो झावोर".झावोर की प्रेमिका ने उसे धोखा दिया और रविवार के दिन जब उसकी शादी का कार्ड लाजेलो को मिला तो उसका दिल टूट गया,तब उसने इस हत्यारे,हृदयविदारक,प्रणय गीत की रचना की.

"now tears are my wine
and greef is my bread
each sunday is gloomy
which feels me with death"
अर्थात, अब आंसू ही मेरी मदिरा है/
और दुःख ही मेरी रोटी/
अब हर इतवार मेरे लिए दुखद है/
जो मुझे मृत्यु भाव से भर देता है."-

जब इस गीत को फेमस संगीतकार "रेज्जो सेरेज़"ने मार्मिक स्वरों में गाकर रिकार्ड कर बाज़ार में पहुँचाया तो उसे सुनकर आत्महत्या करने वालों का तांता लग गया,कुछ ने ज़हर खा ली तो कुछ ने खुद को गोली मार ली और कुछ मानसिक दिवालियेपन के शिकार हो पागल हो गए.यही नहीं यह पड़ोसी देशों लन्दन और अमेरिका में भी अपनी छाप छोड़ आया,वहाँ के कई कॉलेज जाने वाले और स्कूलों के बच्चे-बच्चियों ने आत्महत्या कर ली.बी.बी.सी.द्बारा प्रतिबंधित हो जाने के बाद इसके रिकार्ड बाज़ारों से गायब हो गए.आज यह केवल पुस्तकों में दर्ज है और इसके संगीतकार 'रेज्जो सेरेज़'ने ६९ वर्ष की उम्र में १९६८ में बुडापेस्ट की एक आठ मंजिली इमारत से कूदकर आत्महत्या कर ली.यह 'gloomy sunday'का अंतिम शिकार था.

(रेफर्रेंस-कादम्बिनी सितम्बर १९९३ पेज-९४-९६ )

7/10/09

कमबख्त फिल्म ...


किसी
फिल्म के हिट होने का क्रेटेरिया क्या है या होता है?बहुत संभव है मेरी और
आपकी राय लगभग समान हो.बीबीसी हिंदी पर कमबख्त इश्क के हिट होने की खबर है
साथ ही यह भी कि अक्षय कुमार ने भव्य पार्टी दी और शाहरुख़ खान को भी
पार्टी में बुलाया.यह एक अलग बात है.मेरी समस्या अक्षय कुमार की इन दिनों
की कुछ फिल्मों से बढ़ी है.और मैं यह सोचता हूँ कि फिल्म के लिए स्क्रिप्ट
का दमदार होना जरुरी है या नहीं?कोई नाम मात्र की भी स्टोरी लाइन तो
हो..पर नहीं. दर्शकों का टेस्ट क्या हो चला है इसे पकड़ पाना ना तो ट्रेड
पंडितों के पास है ना ही फिल्म समीक्षकों के पास. "कमबख्त इश्क"कुछ उन
फिल्मों में से थी जिनके लिए सिनेडियों(सिनेमा प्रेमियों)ने बहुत बेसब्री
से इंतज़ार किया था मगर सही में यह फिल्म जिस तरह से बन कर सामने आई है
उसे देख कर यही कहा जायेगा कि कम-से-कम अब साजिद नाडिया..और शब्बीर खान
क्या दिखाना चाहते थे उनसे ही पूछा जाये तो बता नहीं पायेंगे..पर विडम्बना
है कि फिल्म हिट है. मेरे लिए यह फिल्म देखना एक त्रासदी से गुजरने जैसा
अनुभव रहा है.यह फिल्म कमबख्त इश्क से कमबख्त फिल्म में शुरू होते ही
तब्दील हो जाती है.कुछेक दिक्कतें आपके लिए- १-इस फिल्म में जबकि सारी
स्टोरी अक्षय और करीना के आसपास ही रही तो इसमें जावेद जाफरी ,बोमन
इरानी,और किरण खेर का काम क्या था...(पता नहीं जावेद की मति मारी गयी है
या पापी पेट का सवाल..कौन जाने?) २-करीना सुपर मॉडल थी पर एक बार भी रैंप
पर नहीं दिखी ना उन्हें यह टाईटल मिलते दिखा..बहरहाल यह भी अजीब सा लगा कि
यह सुपर माडल अपने सर्जन बनने को लेकर माडलिंग से भी ज्यादा संघर्षरत
है...काश ऐसा हो जाता रियल लाईफ में भी.कि कोई स्टारडम के पीक पर पहुँच कर
भी दो पेशा विपरीत दिशाओं वाले साथ लेकर चल रहा हो.वैसे शब्बीर साहब करीना
के किरदार को खाली डाक्टर ही रहने देते तो भी काम चल ही जाता ३-फिल्म में
एक भी गाना या दृश्य ऐसा नहीं है जिसे याद रखा जा सके.. ४-नयी नयी और
हिंसक शब्दावली सुननी सीखनी हो तो स्वागत है इस कमबख्त ...में ५-किसी सीन
का मतलब ठीक से उभरता नहीं यह देखना हो तो स्वागत है ६-सबसे बड़ी बात
---पैसे ज्यादा हो जेब में खुजली मचा रहे हों तो भी स्वागत है.. ७-ब्रेंडन
रुथ,डेनिस ,और स्टेलोन की क्या मजबूरियां थी अल्लाह जाने कुल मिलाकर
"कमबख्त फिल्म अररर इश्क टाइम पैसे दिमाग की पूरी बर्बादी है...हम तो चट
गए भाई ..

6/4/09

पीयूष मिश्रा का विडियो साक्षात्कार "www.mihirpandya.com"पर.



गुलाल
देखने के बाद जो पीयूष मिश्रा के नए नए मुरीद हुए हैं और वे भी जो रंगमंच
के दिनों से ही इस बेहतरीन कलाकार के फन के कायल हैं,उनके लिए एकदम नया और
ख़ास विडियो साक्षात्कार मेरे अभिन्न मित्र और आवारा हूँ ब्लॉग के 'मिहिर
पंड्या' के वेबसाइट www.mihirpandya.com पर उपलब्ध है.इस इंटरव्यू की सबसे
ख़ास बात है कि अन्य कलाकारों के रेट-रटाये और घिसे -पिटे फार्मुलेबाजी
वाले साक्षात्कार के बीच इस अद्भुत कलाकार ने अपने दिल का दरद दिल्ली के
रंगमंच मार्क्स की बात कर अपनी दुकानदारी चलाने वाले छद्म मार्क्सवादियों
तक पर अपनी तीखी टिपण्णी दी है.मिहिर के ही ब्लॉग साथी वरुण ग्रोवर ने
अनुराग कश्यप के मशहूर प्ले "the skeleton women" जो पृथ्वी थिएटर मुम्बई
में खेला जा रहा है के मौके पर अनौपचारिक तौर पर लिया और फिर जो सिलसिला
चला तो बस एक से एक बात निकलती चली गयी.पीयूष मिश्रा के अब तक छपे
इंटरव्यू को आप भूल जायेंगे.यकीन जानिए ये वही पीयूष मिश्रा हैं जिनके नाम
की तूती दिल्ली के रंगजगत में बोलती थी.आखिर क्यों रंगमंच का एक बहुत ही
उम्दा कलाकार इतना खिन्न हो गया इस मंच से .?क्यों वह अपने संघर्ष के
दिनों के कड़वाहट को पचा नहीं पा रहा है?और भी बहुत कुछ ..आखिर एक कलाकार
के संवेदनशील मन को ठेस कहीं न कहीं हम जैसों से भी पहुंची है...कृपया इस
इंटरव्यू को पढिये और मिहिर के इस प्रयास पर उनकी हौसलाअफजाई कीजिये,.....

5/30/09

राजनीतिक राम के बरक्स पारिवारिक राम की छवि -उत्तररामचरित


रा.ना.वि.
के ग्रीष्मकालीन नाट्य महोत्सव के नाटकों पर लिखने की अगली कड़ी में आज
भवभूति द्बारा रचित और प्रसन्ना द्बारा निर्देशित नाटक "उत्तररामचरित" के
बारे में कुछ.

उत्तररामचरित का संस्कृत से हिंदी अनुवाद 'पंडित सत्यनारायण कविरत्न' ने
किया है.कविरत्न जी ने भवभूति के तीनों नाटकों का हिंदी और ब्रज में
मिला-जुला अनुवाद किया यानी गद्य को हिंदी में तो पद्य को ब्रज में.उनकी
यह कुशलता नाटक के प्रदर्शन में काफी सहयोगी सिद्ध हुई भी
है."उत्तररामचरित"भी एक तरह से रामलीला ही है.पारंपरिक रामलीला खासकर एक
नैतिक नाटक है जिसमे बुराई पर अच्छाई की विजय दिखाई जाती है.इस नाटक में
कोई शैतान नहीं है कोई खल पात्र नहीं.अगर प्रसन्ना की माने तो-"यह नाटक
आत्मसंघर्ष पर केन्द्रित है.इसमें अच्छा आदमी अपने अच्छे होने की कीमत अदा
करता है-यंत्रणा के द्बारा."-इस नाटक पर कुछ और बात से पहले पाठकों को यह
याद दिला दूं कि प्रसन्ना ने इस नाटक का मंचन/निर्देशन १९९१ में किया
था,जब एक राजनीतिक दल ने सत्ता के लिए राम की आध्यात्मिक छवि का दुरूपयोग
कर उसको राजनीतिक छवि सही कहा जाये तो 'साम्प्रदायिक'उग्र युवा प्रतीक के
तौर पर प्रस्तुत किया था.यद्यपि भवभूति का राम विशुद्ध पारिवारिक व्यक्ति
है.उसके परिवार में एक पत्नी,भाई ,सेवक इत्यादि हैं.भवभूति का राम युद्ध
के बाद की परिस्थितयों से लड़ता है ,अपने-आप से लड़ता है और यह इतना
ज़मीनी है इतना कोमल है कि पत्नी वियोग में लोट-लोट कर विलाप करता है और
अपने निर्णय पर पश्चात्ताप करता है कि क्यों उसने गर्भवती पत्नी को
लोकोपवाद के कारण कष्ट भोगने जंगल में भेज दिया.भगवा बिग्रेड कभी भी इस
राम को जनता के सामने लाने का दुस्साहस नहीं कर सकता क्योंकि उनका गढा हुआ
राम 'एंग्री यंगमैन' हैवह शक्ति के अपने ज़मीन की लड़ाई लड़ रहा है.

'दरसल राम की सार्वजनिक छवि उन्हें सीता त्याग को बाध्य करती है जो उनकी
गर्भवती पत्नी है और उधर उनका निजी प्रेमी रूप इस वियोग से उत्पीडित होता
है.इस तरह भवभूति नैतिक विडम्बना के भीतर से एक खूबसूरत प्रेमकहानी निकाल
लाते है.उल्लेखनीय है कि अंत में सीता ही राम को पुनर्जीवन देती है.भवभूति
ने यहाँ राम को नश्वर मनुष्यों की ही तरह प्रस्तुत किया है.अपने निजी जीवन
की असहायता के कारण ही वे जनसाधारण को इतने प्रिय लगते हैं.'(प्रसन्ना)

भवभूति को कालिदास के समकक्ष का नाटककार माना जाता है.इस नाटक के रूप में
उन्होंने एक विशिष्ट रचना दी है.नाटक के रूप में उत्तररामचरित में वो सारे
गुण और लक्षण हैं जो एक सफल नाटक में होने चाहिए.इसमें
प्रेम,दुःख,त्रासदी,संघर्ष और नियति के तथा जीवन के विविध रूपों के दर्शन
होते हैं.नाट्य-समीक्षक रविन्द्र त्रिपाठी के शब्दों को उधार लेते
हुए-"रा.ना.वि.रंगमंडल के कलाकारों ने इस नाटक को १९९२ तथा २००६ में
खेला.इतने वर्ष पहले वह वक़्त था जब राम-मंदिर को लेकर देश भर में एक तनाव
था...उस समय प्रसन्ना ने राजनीतिक राम की छवि के बरक्स आध्यात्मिक राम को
स्थापित किया था.यह एक सांस्कृतिक हस्तक्षेप था,लेकिन इस बार प्रसन्ना का
यह नाटक राजनैतिक नहीं बल्कि नैतिकता की खोज और गृहस्थ जीवन के मूल्यों की
स्थापना है."-इस नाटक में दो सिरे उभरते हैं-लोकोपवाद और उसके कारण सीता
के परित्याग का दंश.इसी के बीच राम आत्मयंत्रणा में जीते हैं.तुलसी के राम
जहां मर्यादा पुरुषोत्तम हैं वहीँ भवभूति के राम मनुष्य ,पति और पिता भी
.इसमें राम का रूप अधिक मानवोचित है.इस नाटक की इसी विशिष्टता के कारण ही
तो कहा गया है-"उत्तर रामचरिते भव्भूतिर्विशिष्यते".

सही मायनों में विवाह नैतिकता और प्रेम का यह नाटक हर दृष्टि से देखने
योग्य है.रंगमंडल तो सदारमे है ही तिस पर प्रसन्ना का निर्देशन 'सोने पे
सुहागा' हो गया है.प्रसन्ना ने यह नाटक अपने पुराने संगीत निर्देशक साथी
जिन्होंने १९९१ में इस नाटक की संगीत-रचना की थी ,की स्मृति को समर्पित
किया है.जिन किसी महाशय को यह चिंता हो कि बिना आधुनिक वाद्य या अत्याधिक
प्रकाश के आयोजन अथवा चकाचौंध के बिना थिएटर संभव नहीं है उनके लिए
उत्तररामचरित को सबक है.यह नाटक न्यूनतम में तैयार होकर अधिकतम की सीमा से
आगे जाकर आपका मनोरंजन करता है.
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परिकल्पना और निर्देशन-प्रसन्ना सह-निर्देशक-सौउती चक्रवर्ती
नाटककार-भवभूति अनुवाद-पंडित सत्यनारायण कविरत्न संगीत-डॉ.गोविन्द पाण्डेय
नृत्य-संरचना-विद्या शिमलड़का प्रकाश-पराग सर्माह वस्त्र-सज्जा-अर्चना
शास्त्री मंचन स्थल-सम्मुख सभागार (नाट्य महोत्सव की समय-सारणी पिछली
पोस्ट से देखे.)

5/29/09

जहां मौत एक सहज कविता सरीखी है-राम नाम सत्य है



रेपर्टरी
(एन एस डी)का यह नाटक "राम नाम सत्य है"-मूल रूप से मराठी नाटककार
'डॉ.चंद्रशेखर फनसलकर'का लिखा हुआ है.फनसलकर के नाटकों और विशेषकर
एकांकियों पर लिखते हुए 'विजय तेंदुलकर' ने लिखा है-"उनके एक-अंकीय नाटकों
में थिएटर की संभावनाओं और सीमाओं,दोनों के प्रति सजगता का पता चलता
है.लेकिन उनमे व्यक्त होने के लिए और भी बहुत कुछ शेष रहता है.उनके भीतर
एक प्रकार की बेचैनी.एक असंतोष और आक्रोश निहित है"-इस नाटक को फनसलकर जी
ने मराठी में 'खेली-मेली' के नाम से लिखा है.जिसका अनुवाद इस नाटक के
निर्देशक'चेतन दातार'ने ही किया है. यह नाटक जैसा कि खुद नाटककार का कहना
है-प्यार,भाईचारे और थोड़े बहुत हौंसले से मनुष्य नर्क में भी जीवन को सहज
बना सकता है और आगे बढ़ रहा है.यही मनुष्य के भीतर उम्मीद और आशा का संचार
करता है,जबकि आज हमारे चारों और की जो मूल्यवान और अच्छी चीज़ें हैं वो या
तो ढह रही हैं या मृतप्राय हो गयी हैं.यह नाटक मनुष्य की इसी 'कभी मृत न
होने वाली'प्रवृति को पकड़ने का प्रयास है."-नाटक देखते हुए एपी फनसलकर की
इस बात से सहमत हो सकते हैं.अथाह दुःख के बेला में भी दर्शक उस उदासी को
सहज तौर पर समझ नहीं पाता और उसे इसकी वेदना और कसक का पता नाटक के अंत पर
ध्यान देने पर चलता है.इस नाटक के किरदारों के एक एक कर मरने के साथ आप
स्तब्ध होते हैं यह जानते हुए कि जिस रोग से ये ग्रसित(एड्स,कैंसर आदि)हैं
उससे तो इन्हें मरना ही है पर कमाल ये है कि एक किरदार के मरने की खबर के
साथ चंद पलों की खामोशी फिर वही जिंदगी जिंदादिली का नाम है मुर्दादिल
क्या ख़ाक जिया करते हैं,के साथ कहानी आगे बढती है और दर्शक भी तुंरत
सामान्य अवस्था में लौट आता है. निर्देशक चेतन दातार ने अपने निर्देशकीय
में यह साफ कर दिया है कि-'यह नाटक मृत्यु के बारे में नहीं है/लेकिन/यह
नाटक पूरी तरह जीवन के बारे में है ..../यह नाटक एड्स के बारे में नहीं है
/लेकिन यह नाटक जीवन के बारे में है,जिसे हमारे बिछडे मित्रों की
अनुपस्थिति के बावजूद पूरे जोश के साथ जिया जाता है./यह नाटक
मुस्कानों,कहकहों और अपने प्रियजनों के साथ बिताये प्रसन्न क्षणों के बारे
में है....यह पूरा नाटक वर्तमान और भविष्य ,दुःख और हंसी,कटु और नम्र का
मिश्रण है./-'नाटककार का यह कथन पूरे नाटक के एक एक परत को खोल के सामने
रख देता है और एक सहज सरल ढंग से इस नाटक को सामने रखता है. ध्यान देने
वाली बात ये है कि एड्स का कथानक में एक किरदार जैसा ही महत्त्व होने के
बावजूद दर्शक एक उम्दा नाटक देखते हैं ना कि स्वास्थ्य मंत्रालय का ,चलो
कंडोम के साथ'का कैम्पेन .थोडी सी असावधानी से ऐसा हो सकने की पूरी
संभावना थी.चेतन ने इस स्थिति को कुशलता से संभाला है.इस कोशिश में नाटक
कई जगह धीमा पड़ता है पर फिर भी पूरे तौर पर इस नाटक का प्रभाव दर्शकों पर
पड़ता है और वे इसका भरपूर आनंद उठाते हैं.एक और ख़ास बात -मैंने जब इस
नाटक को देखा था (१२ दिसम्बर २००६)तब मुख्य पात्र गोपीनाथ मिरासे की
भूमिका -टीकम जोशी (जवान गोपीनाथ)और अनूप त्रिवेदी(बीमार गोपीनाथ)ने निभाई
थी और रंगमंडल को जानने वाले इस बात से इनकार नहीं करेंगे कि क्या किरदार
निभाया होगा दोनों ने..इसी तरह एक पात्र है जो गोपीनाथ के हंसते खेलते
समूह को नौटंकी मानता है वह किरदार है-समीप सिंह द्वारा अभिनीत दामू का इस
पात्र के मरने का दृश्य आपको बरबस ही उदास कर देगा यही क्षण है नाटक में
जब आप हंसते हंसते एकाएक सच्चाई के कड़वे पल का अनुभव करते हैं.यहाँ मौत
एक सहज कविता बन जाती है. कुल मिलाकर रंगमंडल की एक और दमदार प्रस्तुति के
लिए तैयार रहिये इस बार के ग्रीष्मकालीन नाट्य महोत्सव में .
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नाटककार-डॉ.चंद्रशेखर फनसलकर अनुवाद,डिजाईन और निर्देशन-चेतन दातार विडियो
आर्ट और अनिमेशन-ज्ञान देव वस्त्र-सज्जा-कृति वी.शर्मा संगीत-भास्कर
चंदावरकर (अधिक जानकारी पिछले पोस्ट में प्रकाशित है.समय और स्थान वहां से
देख ले.)

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