Friday, October 23, 2009

हिन्दी फिल्मों में तीन तरह के फिल्मकार हैं

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-डा. अमित कुमार शर्मा
फिल्मकार और दर्शक दोनों भारतीय हैं। लेकिन, उनकी क्षमता में अंतर हो सकता है। दोनों प्रस्तुत वस्तुओं में जो छिपा है, उसमें अन्तर्निहित है, उसे देखने की क्षमता रखता है। फिल्मकार दर्शक से इस मामले में आगे होता है कि वह छिपे हुए को उजागर करने की दक्षता भी रखता है।
वह शब्दों को इस तरह पुनर्नियोजित करता है कि भाषा के भीतर से स्त्रोंत निकाल सके। जैसे एक मूर्तिकार पत्थर के भीतर छिपी मूर्ति को उत्कीर्ण कर लेता है या संगीतज्ञ अवाजों के बवंडर के बीच ‘सुरों की संगति’ खोज लेता है।
फिल्म निर्माण की एक परम्परा है। भारतीय सिनेमा के दायित्वों के निर्वाह में ही उसकी स्वतंत्र चेतना का आविर्भाव होता है। सृष्टि के प्रति दायित्व, प्रकृति के प्रति दायित्व, चर-अचर के प्रति दायित्व। दायित्वों की देवभूमि में कथा की सृजनशक्ति वास करती है। इसके विपरीत आधुनिक पश्चिमी सिनेमा में मनुष्य के अधिकारों पर जोर दिया जाता है। परन्तु इन अधिकारों का उपयोग वह कैसे करे? इसकी नैतिक चेतना का स्वाभाविक विकास एक प्रश्न बना रहता है।
भाषाओं का विकास आधुनिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में अक्षम हो जाती है। इसी त्रासदी में कांट का दर्शन ‘फेनोमेनालाजी’ जन्म लेता है। आधुनिक मनुष्य के पास कहने के लिए अद्भुत बातें हैं। कष्टों, वंचना, खुशी के अनुभवों का कोष है। परंतु, आधुनिक दर्शन एवं भाषाओं के पास समर्थ भाषा, तकनीक एवं व्याकरण नहीं है जिससे वे इन गहरी भावनाओं, अनुभूतियों एवं सत्य को अभिव्यक्त कर सके। खैर! ये उनकी बातें हैं।
हमारे यहां जिस भाषा में सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं, वह हिन्दी है। इस तरह भारतीय हिन्दी फिल्मों में तीन तरह के फिल्मकार हैं। पहले जो ज्यादा धूम मचाते हैं, वो हैं- मनमोहन देसाई, सुभाष घई, महेश भट्ट, आदित्य चोपड़ा आदि। ये लोग खूब धूम-धड़ाके से फिल्में बनाते हैं। मीडिया का सहयोग भी इनको मिलता है। जनता भी इनकी फिल्में देखती है। फिल्म बनाना इनके लिए मूलत: एक व्यावसायिक कर्म है।
दूसरी श्रेणी में श्याम बेनेगल, सत्यजित राय, विधु विनोद चोपड़ा, मणिरत्नम जैसे फिल्मकार हैं। ये मूलत: बुद्धिजीवी किस्म के फिल्मकार हैं। इस श्रेणी में वह हर फिल्मकार आयेगा जो सिनेमा को सांकेतिक शक्ति मानता है, और सिनेमा के माध्यम से सामाजिक हस्तक्षेप करना चाहता है। ये लोग कैनन बनाते भी हैं और तोड़ते भी हैं। इनकी फिल्में जनता में उतनी लोकप्रिय नहीं होती हैं। परंतु, आलोचकों-समीक्षकों में इनकी चर्चा होती है। इसका असर पड़ता है।
तीसरी श्रेणी में मेहबूब खान, शांताराम, राजकपूर, हृषिकेश मुखर्जी, संजयलीला भंसाली, आशुतोष गोवरिकर जैसे मध्यमार्गी फिल्मकार आते हैं। इनकी फिल्मों में लोक और शास्त्र का फैशनेबुल कॉकटेल होता है। सूरज बड़जात्या की ‘मैंने प्यार किया’ और ‘विवाह’ भी इसी तरह की फिल्म है। राजश्री वालों की अधिकांश फिल्में इस श्रेणी में आ सकती हैं।
तीनों श्रेणी के फिल्मकार भारतीय हैं। लेकिन, इनकी फिल्मों में भारत की अलग-अलग तस्वीरें हैं। अलग तरह की भारतीयता है। राजश्री वालों की ‘विवाह’ को मीडिया का सहयोग नहीं मिला। इस फिल्म को धूमधाम से प्रचारित करके रिलीज भी नहीं किया गया। फिल्म की शुरूआत बहुत अच्छी नहीं रही। परंतु, धीरे-धीरे इस फिल्म की सफलता ने साबित किया कि मीडिया की चुप्पी और असहयोग के बावजूद घटनाएं घटती हैं और लोक जीवन में उन घटनाओं का महत्व स्वीकारा जाता है। यह मान्यता पूरी तरह सही नहीं है कि आजकल अधिकतर महत्वपूर्ण घटनाएं मीडिया में, मीडिया के लिए घटती हैं।
भारतीय मान्यता है कि असली घटनाएं ब्रह्मांड में घटती हैं। ये घटनाएं गुमनाम मनुष्य के संकल्प से भी घट सकती हैं। और दादासाहब फाल्के जैसे साधारण आदमी की सामान्य इच्छा-शक्ति के कारण भी घट सकती है। औसत दर्जे की फिल्मों को मीडिया खबर के माध्यम से मार या जिला सकती है। लेकिन, उत्कृष्ट फिल्मों को अंतत: अपना उचित स्थान मिल ही जाता है। हर रचनाकार व हर साधक को साधना, रियाज या जप-तप की एक सीमा पार करनी पड़ती है। उन्हें एक उच्चतम स्तर को प्राप्त करना होता है।
इस सीमा को पार करने के पहले मीडिया के सहयोग और असहयोग से फर्क पड़ता है। लेकिन सीमा पार कर लेने के बाद ‘चेतना’ का लोक एवं प्रकृति से अपरोक्ष संबंध स्थापित होने लगता है। उसके बाद फेन क्लब, सम्प्रदाय, आंदोलन बनने की प्रक्रिया शुरू होती है।
‘विवाह’ के समकालीन (पाठ) से आप पीछे जाएं तो ‘नया दौर’, ‘मदर इंडिया’, ‘सीमा’, ‘झनक-झनक पायल बाजे’, ‘तीसरी कसम’, ‘जागते रहो’, ‘गाइड’, उपकार, परख, दीक्षा, अनोखी रात, आराधना, आनंद, निशांत, अभिमान, गोदान, शोले, आंधी, मैंने प्यार किया, दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे, हम दिल दे चुके सनम जैसी फिल्मों पर ध्यान जाता है। इन फिल्मों के खलपात्र के चरित्र या चरित्र-चित्रण में सेमेटिक या मार्क्सवादी कैनन (मूल स्थापनाओं) की स्थापना हो सकती है। लेकिन, इनके सामान्य पात्र या इनमें वर्णित सामान्य घटनाओं में सनातनी सत्य की स्थापना है।
मार्क्सवादियों ने गोदान, दीक्षा या निशांत, मदर इंडिया जैसी फिल्मों से यश चोपड़ा की दीवार से तुलना की है। कुछ समानताएं तलाशी जा सकती हैं। इसके बावजूद दोनों फिल्मों के लेखन या निर्माण का उद्देश्य अलग-अलग है। दीवार एक व्यावसायिक फार्मूला फिल्म है। इसके कुछ तत्व ‘मदर इंडिया’ और कुछ तत्व ‘गंगा जमुना’ से लिए गए हैं। लेकिन, असली कहानी तो मुंबई के हाजीमस्तान के जीवन से प्रेरित है।
कहानी में स्मगलरों की दृष्टि का सहानुभूति पूर्वक चित्रण है। पटकथा की चुस्ती और निर्देशकीय कौशल से यह विज्ञापन फिल्म फीचर फिल्मों में शामिल कर ली गई है। स्मगलरों की गौरव-गाथा का विज्ञापन करती यह फिल्म शिल्प के आधार पर और दक्षता के पैमाने पर कुछ सरफिरे समीक्षकों को कालजयी फिल्म भी दिखती है। लेकिन, यह मत भूलिए कि इसको स्थापित करने में बहुत पैसा लगा है।
बहुत मेहनत की गई है। बहुत मस्तिष्क लगा है। इसके बावजूद यह उसी वर्ष प्रदर्शित फिल्म ‘शोले’ का दर्जा हासिल नहीं कर पाई और न ही ‘जय संतोषी मां’ का’ 110 करोड़ के देश में इतनी विविधता है कि देवआनंद की सनक को भी देखने कुछ लोग पहुंच जाते हैं और रामसे ब्रदर्स की डरावनी हास्य फिल्मों को भी कुछ दर्शक मिल जाते हैं। महेश भट्ट और आदित्य चोपड़ा की फिल्में जिस खास वर्ग के दर्शकों में लगातार सराही जाती हैं, उसी तरह 1970 के दशक में अमिताभ बच्चन की फिल्में सराही जाती थीं। इनकी लोकप्रियता नापने का कोई वस्तुनिष्ठ पैमाना तो अब तक विकसित नहीं हुआ है।
जिस तरह निशांत में जमींदार है और मदर इंडिया में साहुकार उसी तरह भारतीय सिनेमा में समीक्षक आलोचक हैं। सभी मनमानी करते हैं। धर्म, न्याय, संस्थाबद्ध समीक्षा का अभाव है। अपनी सुविधा से समीक्षक मिथक गढ़ देते हैं। अंग्रेजीराज ने साहित्य, सिनेमा, कला, संस्कृति और धर्म का बड़ा अहित किया है। अंग्रेजीराज ने भारतीयों के बीच साहुकारों, जमींदारों, मठाधीशों, समीक्षकों, विद्वानों की नई जमात पैदा कर दी है जो भारतीय होते हुए भी भारतीयों से नफरत करते थे। भारतीय संस्कृति, धर्म, कला, नीति, नैतिकता के विरूद्ध काम करते थे। लेकिन, अंग्रेजीराज के हिमायती होने के कारण समाज में गुंडागर्दी करके आम जनता को रौंदते रहते थे।
1947 के बाद भी राज्य और विश्वविद्यालय द्वारा पोषित संस्थाएं आम जनता को ही दोषी मानती रही। लेकिन, भारतीय सिनेमा ने जनता को नायकत्व दिया। और शासन तथा समाज पर काबिज अंग्रेजीराज के हित-चिंतन से उपजे काले अंग्रेजों की जमात को खलनायक बनाया। इसकी शुरूआत कम से कम हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद, प्रसाद और निराला की रचनाओं से हुई। 1936 के बाद हिन्दी साहित्य का यह मूल स्वर हिन्दी सिनेमा में भी अभिव्यक्त हुआ। 1936 तक हिन्दी मूलत: स्थानीय बोली थी। हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो हिन्दी सिनेमा ने बनाया।
जब गुजराती भाषी मेहबूब, मराठी भाषी शांताराम, बंगाली भाषी बिमल राय, पंजाबी भाषी चेतन आनंद, राजकुमार और बलदेवराज चोपड़ा जैसे लोगों ने एक सचेत निर्णय किया कि वे अपनी मातृभाषाओं में नहीं बल्कि, हिन्दी में अपनी फिल्म बनाएंगे। वह भी मुंबई जैसे मराठी क्षेत्र से। इस तरह हिन्दी को व्यापक राष्ट्रीय फलक मिला।
भारत में सिनेमा घर की स्थिति धीरे-धीरे (1913 से लेकर आजतक) हिन्दू मंदिरों के समतुल्य हो गई है। यहां प्रवेश और निकास द्वार सामान्यत: एक ही होते हैं। खासकर प्राचीन (पारंपरिक) मंदिरों एवं एकल ठठिया सिनेमा गृहों के। लोगों की भीड़, अंदर पहुंचने की आपा-धापी, टिकट खिड़की की लंबी कतार के साथ-साथ मार-पीट या ब्लैक टिकट की खरीद-फरोख्त तक। कुछ मंदिरों में सिनेमा हाल की तरह श्रेणीबद्ध टिकट दर है। अत: सिनेमा का समाजशास्त्र धर्म के समाजशास्त्र से काफी कुछ सीख सकता है। भारतीय तत्वविज्ञान के अनुसार मंदिर की भीड़ में भी वस्तुत: हर व्यक्ति अकेला होता है। सिनेमागृह के अंदर की भीड़ में भी लोग अकेले होते हैं।
बहरहाल, भारत के आम दर्शकों को सिनेमा घर का अंधेरा मंदिरों के गर्भगृह की स्मृति देता है। फिल्म की कथानक में रामायण, महाभारत, श्रीमदभागवत या जातककथाओं के तत्व होते हैं। भारतीय पूजा पद्धति की तरह हमारी फिल्मों में भी अक्सर गीत-संगीत का तत्व होता है। हर नायक में कृष्ण और हर नायिका राधा या गोपी होती है। हर विरहिनी मीरा सा गोपियों के गीत गाती है। भारतीय सिनेमा पारंपरिक लोकजीवन का ही विस्तार है। यह जानबूझकर व्यवस्थित तरीके से नहीं किया गया। बल्कि अपने आप हुआ है। लेकिन, अंग्रेजी राज के समय ही लोकजीवन और लोकशास्त्रों को हिकारत के भाव से देखा जाता रहा है।
बावजूद इसके भारतीय सिनेमा ने लोकजीवन और लोकशास्त्रों से तादात्मय स्थापित किया। भारतीय लोकपक्ष के संरक्षण-संवर्द्धन में तथा लोकरीति के असंतुलित पक्षों की समीक्षा में भारतीय सिनेमा की भूमिका भारतीय राज्य और भारतीय विश्वविद्यालयों से ज्यादा रही है। ये लोग पश्चिमी शास्त्रों की ओर उन्मुख होकर अपना विमर्श और व्यापार चलाते रहे हैं। जबकि, भारतीय सिनेमा कुछेक अपवादों एवं अतिरेकों के बावजूद इस देश के लोक और शास्त्र से संवाद बनाकर अपना विमर्श एवं व्यापार चलाते रहे हैं। यही कारण है कि भारत में सिनेमा इतना लोकप्रिय और सशक्त माध्यम है।
लेकिन, आजतक भारतीय विश्वविद्यालयों में सिनेमा को एक विषय एवं प्रभावी जनसंचार माध्यम के रूप में महत्व नहीं मिला। हमेशा इसे ‘हेय मनोरंजन’ का साधन मानकर विश्वविद्यालय के बाहर की चीज माना गया। इसे अपने भरोसे जीने-मरने के लिए छोड़ दिया गया। यह तो भारतीय सिनेमा की जीवंतता और आंतरिक ऊर्जा है कि इसने खुद अपने अस्तित्व की रक्षा की। अपना पालन-पोषण किया। अपनी वैश्विक पहचान बनायी और अब उभरते हुए भारत की सबसे प्रमुख सांस्कृतिक पहचान बन गई है।
अत: भारतीय सिनेमा के स्वरूप और भारतीय दर्शकों से इसके रागात्मक संबंधो को समझना आवश्यक है। इस रागात्मक संबंध का एक इतिहास और समाजशास्त्र है। इसका एक सौन्दर्यशास्त्र और तत्वमीमांशा है। ‘अंधेरा में प्रकाश’ वह सूत्र है जो इसको समझने में सहायक है। खैर! यह एक लंबी बात है।
फिल्म भारत में सामान्यत: एक कला है। कई निर्देशकों की कोशिशों के बाद भी हालीवुड की तरह भारत में फिल्म एक सांस्कृतिक उत्पाद नहीं बन पाया है। कम से कम दर्शकों ने इसे सांस्कृतिक उत्पाद के रूप में अभी तक नहीं स्वीकारा है। भारतीय दर्शक और अधिकांश स्वतंत्र फिल्मकार फिल्म को आज भी कला का रूप मानते हैं। हर सफल फिल्म में आधुनिक तकनीक और पारंपरिक कला मूल्यों का समन्वय एवं तादात्मय किसी न किसी रूप में स्थापित किया जाता है या हो जाता है।
भारतीय दृष्टि में अंतत: अधिकांश फिल्मकार एक समकालीन ऋषि की तरह व्यवहार करता है। हर फिल्म एक प्रकार से उसकी साधना और सिद्धावस्था का प्रकटीकरण है। कोई भी ऋषि अपना सत्य दूसरों पर आरोपित नहीं करना चाहता। दूसरों के सत्य को स्वीकारने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती। चूंकि सत्य तो अद्वैत होता है, चाहे अपना बोल रहा हो या पराया। सत्यानुभूति में अद्वैत है।
इसलिए सत्यानुभूति के आग्रही दर्शक फिल्म के अंत में मिलन, अद्वैत, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् देखना चाहते हैं। सत्य, न्याय, दैवीय शक्तियों की जीत देखना चाहते हैं। ट्रेजड़ी नहीं देखना चाहते। दुखांत फिल्में सामान्यत: इस देश में सफल नहीं होती हैं। विदेश में बसे भारतीयों या पश्चिमी परस्त दर्शकों में लोकप्रिय हो सकती हैं। लेकिन, आम भारतीय ऐसी फिल्मों को नकार देते हैं।

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