सवर्ण हिन्दू समाज ने पिछडों और दलितों को कभी अपने बराबर का मनुष्य नहीं माना। उनके प्रति सदैव उपेक्षा और अपमान का व्यवहार किया है। गैर-बराबरी के विरूद्ध मुखरित होने वाला भारतीय समाज जाति के प्रश्न पर मौन साध लेता है। जबकि दलितों की सारी समस्याओं के मूल में सबसे बडा कारण जाति है।
दलित और हिन्दी सिनेमा
भारतीय सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है। दलितों के प्रति करूणा दिखाकर वह अछूत कन्या, आदमी, अछूत, सुजाता, बूटपालिश, अंकुर और सदगति जैसी फिल्मों का निर्माण तो करता है किंतु जिस तल्खी और शिद्दत से जाति के प्रष्न को उठाए जाने की जरूरत है, उस तरह से नहीं उठाता।
जाति भारतीय समाज की एक कटु सच्चाई है। संविधान को अंगीकृत करने के उनसठ वर्ष बाद भी जातिप्रथा पूरी तरह से कौन कहे आधी तरह से भी सफाया नहीं हो सका है। इसका प्रमाण तमाम राष्टीय एवं क्षेत्रीय अखबारों में प्रकाषित जाति-आधारित वैवाहिक विज्ञापन है।
वेलकम टू सज्जनपुर
मैं यहां वेलकम टू सज्जनपुर के बहाने हिन्दी
नायक की मां जाति नाम के अनुरूप सब्जी की दुकान चलाती है और नायिका के यहां मिट्टी के बर्तन बनाने का काम होता है। इससे पहले की फिल्मों में अमूमन दलित या पिछडी जातियों से जुडे चरित्र सिनेमा में हाशिये पर ही होते थे। हालांकि यहां मैं बैंडिट क्वीन और गॉड मदर का जिक्र जरूर करूंगा जिसमें दलित चेतना दिखाई दी थी।
बदलते समाज के खलनायक
इसी तरह से किन्नरों का आधुनिक भारतीय राजनीति
हालांकि ब्राहमण बेनेगल की प्रछन्न सहानुभूति का पात्र है बावजूद इसके उसका छद्म फिल्म में एक सुन्दर युवा लडकी का विवाह मांगलिक होने के नाम पर काले भूरे-कुत्ते से कराए जाने के प्रकरण में दिखायी देता है। बेनेगल ने जहां पिछडे और दलित को नायक-नायिका बनाया है वहीं ठाकुर को खलनायक। इस तरह का चित्रण इससे पूर्व की फिल्मों में नहीं दिखता। इस लिहाज से हल्की-फुल्की हास्य फिल्म सी लगने वाली वेलकम टू सज्जनपुर एक अहम फिल्म है जो बदलते भारतीय समाज को स्वर देती है। जाहिर सी बात है कि बेनेगल ने यह सब कुछ सचेत रहकर किया है अचेत तौर पर नहीं।
[चंद्रभूषण 'अंकुर' जाने-माने फिल्म
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