Saturday, October 24, 2009

शैलेन्द्र - संवेदनशील गीतकार

nday, September 25, 2006

शैलेन्द्र - संवेदनशील गीतकार

"के मर के भी किसी को याद आयेंगे
किसी के आँसुओं में मुस्कुरायेंगे
कहेगा फूल हर कली से बार बार
जीना इसी का नाम है....."
(फिल्म अनाड़ी)

सरल और सटीक शब्दों में भावनाओं और संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर देना शैलेन्द्र जी की महान विशेषता थी| किसी के आँसुओँ में मुस्कुराने जैसा विचार केवल शैलेन्द्र जैसे गीतकार के संवेदनशील हृदय में आ सकता है| उनकी संवेदना का एक और उदाहरण देखिये -

"कल तेरे सपने पराये भी होंगे लेकिन झलक मेरे आँखों में होगी
फूलों की डोली में होगी तू रुखसत, लेकिन महक मेरे साँसों में होगी....."
(फिल्म ब्रम्हचारी)

शायद उनके लिखे ये शब्द आपके भी हृदय को छू लेती होगी -

"तेरे मेरे दिल के बीच अब तो सदियों के फासले हैं
यकीन होगा किसे के हम तुम इक राह संग चले हैं....."
(फिल्म गाइड)


शायद कभी प्यार की राह में कभी ऐसे गिरे रहे होंगे वे कि फिर कभी संभल नहीं पाये| इसीलिये वे लिखते हैं

"सहज है सीधी राह पे चलना
देख के उलझन, बच के निकलना
कोई ये चाहे माने न माने
बहुत है मुश्किल गिर के संभलना....."
(फिल्म जिस देश में गंगा बहती है)

कितने सुंदर ढंग से दर्शा देते हैं वे कि दिल बिक भी सकता है और धड़क भी सकता है -

"उस देश में, तेरे परदेश में सोने चांदी के बदले में बिकते हैं दिल
इस गाँव में, दर्द के छाँव में प्यार के नाम पर ही धड़कते हैँ दिल....."
(फिल्म श्री 420)

फिल्मों में गीत लिखने के पहले देश के आजादी की लड़ाई में योगदान देने का उनका एक अलग ही तरीका रहा है| वे उस समय देशभक्ति से सराबोर वीररस की कविताएँ लिखा करते थे और उन्हें जोशोखरोश के साथ सुनाकर सुनने वालों को देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत कर दिया करते थे, परिणामस्वरूप देश के आजादी के वीरों का बहुत अधिक उत्साहवर्धन होता था| उनकी रचना 'जलता है पंजाब......' ने उन दिनों बहुत प्रसिद्धि पाई| फिल्मों मेँ आने के बाद भी उनका ये ज़ज़्बा बना ही रहा इसीलिये वे गरीब भारतीय की अभिव्यक्ति इन शब्दों में करते हैँ -

"मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी
सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी....."
(फिल्म श्री 420)

एक हिंदुस्तानी स्त्री की भावनाओं का कितना सुंदर प्रदर्शन करते हैं वे अपने इस गीत मेँ -

"तन सौंप दिया, मन सौंप दिया, कुछ और तो मेरे पास नहीँ
जो तुम से है मेरे हमदम, भगवान से भी वो आस नहीँ....."
(फिल्म संगम)

ग्लैमर की दुनिया में रहकर भी दौलत इकट्ठा न कर पाये कभी| सीधे सच्चे इंसान थे वे, होशियारी कभी सीख ही न सके| उनके ही शब्दों में -

"सब कुछ सीखा हमने, ना सीखी होशियारी
सच है दुनिया वालों, के हम हैं अनाड़ी....."
(फिल्म अनाड़ी)

काल के गाल में एक दिन जाना तो सभी को होता है पर शैलेन्द्र जैसे गीतकार के चले जाने से भारतीय सिनेमा में आया खालीपन कभी भी न भर पायेगा| ये जानते हुये भी कि उनके लिखे इन शब्दों का सच होना असंभव है, चलिये एक बार दुहरा लेते हैं उनके उन असंभव शब्दों को -

"ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना....."
(फिल्म बंदिनी)

Sunday, September 24, 2006

कुछ बातें शंकर जयकिशन के विषय में

शंकर पृथ्वी थियेटर्स में तबला वादक का काम करते थे| जयकिशन बंबई (अब मुंबई) आये थे हीरो बनने के लिये| एक निर्देशक के आफिस में मुलाकात हुई दोनों की और मुलाकात दोस्ती में बदल गई| शंकर ने जयकिशन को भी पृथ्वी थियेटर्स में काम दिलवा दिया| उन दिनों पृथ्वी थियेटर्स के संगीतकार हुस्नलाल भगतराम हुआ करते थे| शंकर और जयकिशन की प्रतिभा से प्रभावित होकर हुस्नलाल भगतराम ने उन्हें अपना सहायक बना लिया|

शंकर और जयकिशन दोनों ही दोस्त की आकांक्षा थी संगीत निर्देशक बनने की| दोनों दिन में अपनी नौकरी निभाते थे और रात को हारमोनियम तबला लेकर बैठ जाते थे धुनें बनाने| कई प्यारी धुनें बना ली थीं उन्होंने और चाहते थे कि किसी निर्देशक को अपनी धुनें सुनाये ताकि उन्हें संगीत निर्देशन का काम मिल सके पर निर्देशकों तक पहुँच नहीँ थी उन दोनों की|

सन 1947 में राज कपूर साहब ने अपनी फिल्म आग बनाई| आग के संगीत निर्देशक थे राम गांगुली| उस समय शंकर जयकिशन राम गांगुली के सहायक हुआ करते थे| इसी दौरान उन्होंने राज साहब से उनकी धुनों को सुन लेने का अनुरोध किया| राज साहब ने उन्हें समय तो कई बार दिया पर अति व्यस्त होने के कारण उनकी धुनों को एक भी बार सुन नहीं पाये| हर बार फिर समय दे दिया करते थे| ये दोनों भी दिये गये समय पर फिर उपस्थित हो जाते थे पर हर बार एक नया समय दे दिया जाता था|

आग बन जाने के बाद राज साहब बरसात बनाने की घोषणा कर दी| फिल्म बरसात में राम गांगुली को ही संगीत निर्देशन का कार्य देने का निश्चय था उनका| हाँ तो इस घोषणा के बाद वे अपने आफिस में बैठे थे कि पहुँच गये शंकर और जयकिशन उनके पास, क्योंकि समय दिया गया था उन्हें| इस बार राज साहब ने उनके लिये समय निकाला यह कहते हुये कि चलो एकाध धुन जल्दी से सुना दो क्योंकि अधिक समय नहीं है मेरे पास तुम दोनों के लिये| पहली ही धुन ने राज साहब पर ऐसा जादू चलाया कि सारे काम छोड़कर उनकी सारी धुनें सुनीं और राम गांगुली की जगह पर उन दोनों को संगीत निर्देशन का काम दे दिया| शायद आप भी जानते होंगे कि वो पहली धुन कौन सी थी जिसने राज साहब को मोह लिया, जी हाँ ये वही धुन थी जिस पर 'हवा में उड़ता जाये......' गाना बनाया गया| आपको भी पसंद आता है न आज भी ये गीत!

Friday, September 22, 2006

साहिर लुधियानवी - लफ्ज़ों के जादूगर


एक ही विचार को दो अलग अलग भावों में व्यक्त करने की कला बहुत अच्छी तरह से जानते थे साहिर साहब| जहाँ उन्होंने आशावादी रूप में लिखा हैः

वो सुबह हमीं से आयेगी

जब धरती करवट बदलेगी, जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे, जब ज़ुल्म के बन्धन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लायेंगे, वो सुबह हमीं से आयेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

मनहूस समाजों ढांचों में, जब जुर्म न पाले जायेंगे
जब हाथ न काटे जायेंगे, जब सर न उछाले जायेंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की, सरकार चलाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

संसार के सारे मेहनतकश, खेतो से, मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इन्सां, तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और खुशहाली के, फूलों से सजाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

वहीं वे अपने उसी गीत को कैसे निराशावादी रूप दे देते हैः

वो सुबह कभी तो आयेगी

इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नज़्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से, हम सब मर-मर कर जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में, हम जहर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर, इक दिन तो करम फर्मायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

माना कि अभी तेरे मेरे, अर्मानों की कीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर, इन्सानों की कीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे, सिक्कों में न तोली जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

दौलत के लिये जब औरत की, इस्मत को न बेचा जायेगा
चाहत को न कुचला जायेगा, ग़ैरत को न बेचा जायेगा
अपनी काली करतूतों पर, जब ये दुनिया शर्मायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर, ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर, दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी, राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी, गलियों भीख न मांगेगा
ह़क मांगने वालों को जिस दिन, सूली न दिखाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

फ़ाको की चिताओं पर जिस दिन, इन्सां न जलाये जायेंगे
सीनों के दहकते दोज़ख में, अर्मां न जलाये जायेंगे
ये नरक से भी गन्दी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

अब आपको यह बताने की जरूरत तो नहीं होगी कि यह फिल्म फिर सुबह होगी का वही अमर गीत है जो आज तक लोकप्रिय है|

Thursday, September 21, 2006

संगीत के असाधारण ताल

जरा याद कीजिये फिल्म काला बाजार के गीत 'अपनी तो हर आह एक तूफान है.....' को| या फिल्म दोस्त के गीत 'गाड़ी बुला रही है.....' को| कुछ विशेषता नजर आती है इनमें? जी हाँ इन गानों में रेलगाड़ी की आवाज को ताल के रूप में इस्तेमाल किया गया है| फिल्म पाक़ीजा के गीत 'चलते चलते यूँ ही कोई मिल गया था.....' के अंत में बजती हुई रेलगाड़ी की सीटी कितनी मधुर लगती है| और भी कई गाने याद आ जायेंगे आपको जिनमें कि रेलगाड़ी के आवाज और सीटी का ताल के रूप में प्रयोग किया गया है| हिंदी फिल्म संगीत में रेलगाड़ी की आवाज को ताल का रूप प्रदान करने वाली सबसे पहली फिल्म थी जवाब (1941)| गाना था 'दुनियाँऽऽऽ ये दुनियाँ है तूफान मेल.....', गायिका थीं कानन देवी और संगीत निर्देशन था कमल दासगुप्ता|

इसी प्रकार घोड़े की टाप को ताल का रूप देने का श्रेय संगीतकार ओ.पी. नैयर को जाता है| याद कीजिये फिल्म नया दौर के गीत 'मांग के साथ तुम्हारा.....' और फिल्म फिर वही दिल लाया हूँ के गीत 'बंदा परवर थाम लो जिगर....' को| इन गानों में ताल के रूप में गूँजती हुई घोड़े की टापों की आवाज कितनी कर्णप्रिय लगती है|

सबसे अधिक विभिन्न प्रकार के विचित्र तालों का प्रयोग करने वाले संगीतकार हैं आर.डी. बर्मन| उदाहरण के लिये तनिक गौर से सुनकर देखियेगा फिल्म पड़ोसन का गाना 'मेरे सामने वाली खिड़की में इक चांद का टुकड़ा रहता है.....' को, ताल सुनकर झूम उठेंगे आप पर उसमें एक प्रकार की विचित्रता का भी अनुभव होगा| पंचम दा ने पश्चिम के वाद्ययंत्रों को इस्तेमाल करके भारतीय संगीत की रचना करने का बड़ा ही मधुर और सफल प्रयोग किया है| फिल्म अमर प्रेम का गाना 'रैना बीत जाये.....' पूर्णतः शास्त्रीय संगीत पर आधारित है पर इस गाने में प्रायः पश्चिम के साजों का ही उपयोग किया गया है|

टीपः

अपनी टिप्पणी में मनीष जी बहुत अच्छी जानकारी दी है| सभी के ज्ञानवर्धन के लिये मैं उनकी टिप्पणी को अक्षरशः प्रस्तुत कर रहा हूँ

"वैसे रेलगाड़ी की सीटी याद दिला जाती है पंचम दा के खुद के गाये हुए गाने धन्नो की आँखो में की।
और पिछले साल बंटी और बबली में गुलजार के गीत धड़क ‍धड़क धुआँ उड़ाए रे ने फिर रेलगाड़ी की सीटी का बखूबी इस्तेमाल किया था।"

जानकारी में इजाफा के लिये मैं मनीष जी का शुक्रगुज़ार हूँ|

Wednesday, September 20, 2006

सिर्फ एक बार

चलिये आज कुछ ऐसे कलाकारों के विषय में बातें कर लें जिन्होंने एक साथ केवल एक ही बार काम किया और फिर बाद में वे फिर कभी इकट्ठे काम नहीं कर पाये, कारण चाहे जो भी रहा हो|

दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन की एकमात्र फिल्म है शक्ति|

दिलीप कुमार और नूतन ने केवल एक बार ही एक साथ काम किया है, फिल्म कर्मा|

राज कपूर और हेमा मालिनी फिल्म सपनों का सौदागर के बाद फिर कभी एक फिल्म में नहीं आये| उल्लेखनीय है कि सपनों का सौदागर हेमा मालिनी की पहली फिल्म थी|

जितेन्द्र और सायरा बानो की केवल एक ही फिल्म आई है आज तक, जी हाँ आपको भी याद आ गया होगा कि फिल्म है आखरी दाँव|

जितेन्द्र और शर्मिला टैगोर की एक मात्र फिल्म है मेरे हमसफर|

एक ही परिवार के तीन पीढ़ियों के कलाकारों को एक साथ लेकर केवल एक ही फिल्म बनी है, फिल्म का नाम है कल आज और कल तथा कलाकार हैं पृथ्वीराज कपूर, राज कपूर और रणधीर कपूर|

अमिताभ बच्चन और माला सिन्हा ने एक साथ केवल फिल्म संजोग में काम किया है|

अमिताभ बच्चन और जितेन्द्र को एक साथ लेकर केवल एक ही फिल्म फिल्म बनी फिल्म का नाम है गहरी चाल|

अमिताभ बच्चन और नूतन की एकमात्र फिल्म है सौदागर|

अमिताभ बच्चन और रीना राय एक साथ केवल फिल्म नसीब में आये| यद्यपि फिल्म अंधा कानून में भी दोनों का रोल था पर पूरे फिल्म में दोनों कलाकारों का एक साथ कोई भी दृश्य नहीं है|

अमिताभ बच्चन और नाना पाटेकर की एक ही फिल्म है, नाम है कोहराम|

शेखर सुमन और रेखा की एक ही फिल्म है उत्सव|

राकेश रोशन और हेमा मालिनी की एकमात्र फिल्म है पराया धन| यह राकेश रोशन की पहली फिल्म थी|

शत्रुघ्न सिन्हा और विद्या सिन्हा केवल एक बार फिल्म मगरूर में ही एक साथ आये|

शत्रुघ्न सिन्हा और राज कुमार की केवल एक ही फिल्म है चंबल की कसम|

शत्रुघ्न सिन्हा और रजनीकांत एक साथ फिल्म असली नकली में ही आये|

राज कुमार और डैनी की एकमात्र फिल्म है बुलंदी|

राज कुमार और नाना पाटेकर को एक साथ लेकर एक ही फिल्म बनी है तिरंगा|

आमिर खान और नीलम की एकमात्र फिल्म है अफ़साना प्यार का|

दिलीप कुमार और राजकुमार का नाम इस लिस्ट में आ जाता यदि उनकी पहली फिल्म पैगाम के 32 साल बाद सुभाष घई ने दोनों को अपनी फिल्म सौदागर में फिर से एक बार काम करने का अवसर न दिया होता|

(सहयोग - अनुज विमल अवधिया)

Tuesday, September 19, 2006

कुछ बातें धर्मेंद्र के बारे में

रोल चाहे फिल्म सत्यकाम के सीधे सादे ईमानदार हीरो का हो, फिल्म शोले के एक्शन हीरो का हो या फिल्म चुपके चुपके के कॉमेडियन हीरो का, सभी को सफलता पूर्वक निभा कर दिखा देने वाले धर्मेंद्र सिंह देओल अभिनय प्रतिभा के धनी कलाकार हैं| सन् 1960 में फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे से अभिनय की शुरुवात करने के बाद पूरे तीन दशकों तक धर्मेंद्र चलचित्र जगत में छाये रहे| केवल मेट्रिक तक ही शिक्षा प्राप्त की थी उन्होंने| स्कूल के समय से ही फिल्मों का इतना चाव था कि दिल्लगी (1949) फिल्म को 40 से भी अधिक बार देखा था उन्होंने| अक्सर क्लास में पहुँचने के बजाय सिनेमा हॉल में पहुँच जाया करते थे| फिल्मों में प्रवेश के पहले रेलवे में क्लर्क थे, लगभग सवा सौ रुपये तनख्वाह थी| 19 साल की उम्र में ही शादी भी हो चुकी थी उनकी प्रकाश कौर के साथ और अभिलाषा थी बड़ा अफसर बनने की|

फिल्मफेयर के एक प्रतियोगिता के दौरान अर्जुन हिंगोरानी को पसंद आ गये धर्मेंद्र और हिंगोरानी जी ने अपनी फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे के लिये उन्हें हीरो की भूमिका के लिये अनुबंधित कर लिया 51 रुपये साइनिंग एमाउंट देकर| पहली फिल्म में नायिका कुमकुम थीं| कुछ विशेष पहचान नहीं बन पाई थी पहली फिल्म से इसलिये अगले कुछ साल संघर्ष के बीते| संघर्ष के दिनों में जुहू में एक छोटे से कमरे में रहते थे| लोगों ने जाना उन्हें फिल्म अनपढ़ (1962), बंदिनी (1963) तथा सूरत और सीरत (1963) से पर स्टार बने ओ.पी. रल्हन की फिल्म फूल और पत्थर (1966) से| 200 से भी अधिक फिल्मों में काम किया है धर्मेंद्र ने, कुछ अविस्मरणीय फिल्में हैं अनुपमा, मँझली दीदी, सत्यकाम, शोले, चुपके चुपके आदि|

अपने स्टंट दृश्य बिना डुप्लीकेट की सहायता के स्वयं ही करते थे| चिनप्पा देवर की फिल्म मां में एक चीते के साथ सही में फाइट किया था धर्मेंद्र ने|

Monday, September 18, 2006

यादें - महानायक अमिताभ बच्चन के संघर्ष के दिनों की

'मधुशाला' के रचयिता प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन के ज्येष्ठ पुत्र अमिताभ बच्चन ने अपने आरंभिक दिनों में अभिनय जगत में स्थापित होने के लिये बहुत संघर्ष किया है| फिल्मों में आने से पहले वे स्टेज आर्टिस्ट तथा रेडियो एनाउंसर भी रह चुके हैं| फिल्मों में काम करने के लिये उन्होंने कई बार आवेदन दिया पर हर बार उन्हें उनके ऊँचे कद के कारण अस्वीकार कर दिया जाता था| अंत में ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने उन्हें अपनी फिल्म सात हिंदुस्तानी (1969) में अवसर दिया| पर फिल्म बुरी तरह पिट गई और अमिताभ बच्चन की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया|

उनकी आवाज से प्रभावित होकर उन्हें फिल्म भुवन सोम (1969) में 'नरेटर' (पार्श्व उद्घोषक) का कार्य दिया गया, फिल्म में उनकी आवाज अवश्य थी पर उन्हें परदे पर कहीं दिखाया नहीं गया था| ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म आनंद (1970) में अमिताभ बच्चन ने बहुत अच्छी भूमिका निभाई थी पर फिल्म की सफलता का सारा श्रेय राजेश खन्ना ले गये, वे उस समय के जाने माने स्थापित नायक थे|

ऋषि दा ने अपनी फिल्म गुड्डी में भी अतिथि कलाकार बनाया पर इससे अमिताभ को कुछ विशेष फायदा नहीं मिला| फिर उन्हें रवि नगाइच के फिल्म प्यार की कहानी (1971) में मुख्य भूमिका मिली| नायिका तनूजा और सह कलाकार अनिल धवन के होने के बावजूद भी फिल्म चल नहीं पाई और अमिताभ के संघर्ष के दिन जारी ही रहे| उन दिनों अमिताभ बच्चन को जैसा भी रोल मिलता था स्वीकार कर लेते थे| इसीलिये फिल्म परवाना (1971) में उन्होंने एंटी हीरो का रोल किया| परवाना में नवीन निश्चल की मुख्य भूमिका थी और वे भी उस समय के स्थापित नायक थे अतः अमिताभ की ओर लोगों का ध्यान कम ही गया| सन् 1971 में ही उन्होंने संजोग, रेशमा और शेरा तथा पिया का घर (अतिथि कलाकार) फिल्मों में काम किया पर कुछ विशेष सफलता नहीं मिली|

सन् 1972 में आज के महानायक की फिल्में थीं - बंशी बिरजू, बांबे टू गोवा, एक नजर, जबान, बावर्ची (पार्श्व उद्घोषक) और रास्ते का पत्थर| बी.आर. इशारा की फिल्म एक नजर में उनके साथ हीरोइन जया भादुड़ी थीं| फिल्म के संगीत को बहुत सराहना मिली पर फिल्म फ्लॉप हो गई| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि फिल्म एक नजर के गाने आज भी संगीतप्रेमियों के जुबान पर आते रहते हैं खासकर 'प्यार को चाहिये क्या एक नजर.......', 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा.......', 'पहले सौ बार इधर और उधर देखा है.......' आदि| इसी फिल्म से अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी एक दूसरे को चाहने लगे| ये जया भादुड़ी ही थीं जिन्होंने संघर्ष के दिनों में अमिताभ को संभाले रखा|

सन् 1973 में अमिताभ जी की फिल्में बंधे हाथ, गहरी चाल और सौदागर विशेष नहीं चलीं| पर प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर की अपूर्व सफलता और उनके एंग्री यंगमैन के रोल ने उन्हें विकास के रास्ते पर ला खड़ा किया|

(साधुवाद अनुज विमल अवधिया को जिन्होंने कई भूली बिसरी बातों को स्मरण करवाया|)

Sunday, September 17, 2006

संगीत सफर

फिल्म संगीत जब शुरू हुआ, केवल गिने-चुने साज ही उपलब्ध थे साथ ही कई प्रकार की तकनीकी कठिनाइयाँ थीं आपको शायद पता हो कि पुराने समय में माइक्रोफोन इतने कमजोर होते थे कि रेकार्डिंग के पहले कुछ समय तक उसे गरम करना पड़ता था साज कम होने के कारण आवाज का महत्व अधिक था, फिल्मों में काम करने के लिये गीत-संगीत का ज्ञान होना आवश्यक था क्योंकि प्ले बैक का सिस्टम नहीं था उन दिनों और कलाकारों को अपना गाना स्वयं गाना पड़ता था आवाज का महत्व अधिक होने के कारण ही एक अंतराल तक के.एल. सहगल, पंकज मलिक, के.सी. डे छाये रहे फिर जमाना बदला, नये-नये तकनीक आने लगे, साजों में भी वृद्धि होने लगी सन् 1944 में संगीतकार नौशाद ने पहली बार फिल्म 'रतन' में साज और आवाज का भरपूर प्रयोग किया और फिल्म संगीत को एक नई दिशा मिली नौशाद, सी. रामचंद्र, चित्रगुप्त, हेमंत कुमार, रोशन, एस.डी. बर्मन, खय्याम, जयदेव, सलिल चौधरी, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, ओ.पी. नैयर, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन जैसे तीव्र कल्पनाशील संगीतकारों और मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, लता मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर, आशा भोंसले जैसे प्रतिभावान गायक गायिकाओं के संगम ने फिल्म संगीत को मधुर और सर्वप्रिय बना दिया धुनों में साज और आवाज के समुचित अनुपात उन्हें और भी अधिक मधुर बना देते थे और सार्थक शब्द संरचना सोने में सुहागा का काम करती थीं

सन् 1950 से 1980 तक का समय फिल्म संगीत का स्वर्ण युग रहा मेलॉडियस संगीत उस काल के फिल्मों की आत्मा बन गई एक एक गीत को परदे पर देखने और सुनने के लिये लोग अनेक बार एक ही फिल्म को देखने जाते थे और अधिकतम फिल्में सिल्व्हर जुबली, गोल्डन जुबली तथा प्लेटिम जुबली मनाया करती थीं सारे के सारे संगीतकार अपनी धुनों को सुमधुर सुरों से सजाने के लिये अथक परिश्रम किया करते थे शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी आदि भी गीतों को सार्थक बनाने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा दिया करते थे गायक गायिकाओं के कर्णप्रिय कंठस्वर उन दिनों के संगीत में चार चाँद लगा दिया करती थीं कई बार तो फिल्में पिट जाती थीं पर उनका संगीत गूंजते रहता था पारसमणि, लुटेरा, बादशाह जैसी स्टंट फिल्मों के गीत भी आज तक लोकप्रिय हैं

सभी संगीतकार अपनी मौलिकता बनाये रखना चाहते थे और सभी की अपनी अपनी स्टाइल थी बर्मन दा अपनी धुनों में लोक संगीत का बहुत अच्छा समावेश कर लेते थे आपको शायद पता हो कि सचिन देव बर्मन त्रिपुरा के राजपरिवार से सम्बंधित थे बर्मन दा को वर्ल्ड म्युजिक कान्टेस्ट (world music contest) का जूरी होने का गौरव भी प्राप्त था सलिल चौधरी भारतीय और पश्चिमी दोनों ही संगीत में पारंगत थे और दोनों का बहुत अच्छा समावेश किया करते थे शंकर जयकिशन ज्यादातर एकॉर्डियन और बांसुरी के मेल से अपनी धुनों को सजाया करते थे कल्याणजी आनंदजी क्लार्नेट का बहुत अच्छा इस्तेमाल करते थे फिल्म नागिन में हेमंत कुमार के लिये बीन की धुन को कल्याणजी आनंदजी ने ही क्लार्नेट पर बजाया था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ढोलक और बांसरी के प्रयोग से अपनी धुनों को मधुर बनाते थे ओ.पी. नैयर ने संगीत की कोई शिक्षा ही नहीं प्राप्त की थी फिर भी इतनी मधुर धुनें बनाते थे कि लोग सुन कर झूम उठते थे

सन् 1980 से भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम युग के पतन का आरंभ होना शुरू हो गया मेलॉडी के स्थान पर डिस्को, पॉप इत्यादि पश्चिमी धुनों का प्रचलन बढ़ता गया निरर्थक गीत लिखे जाने लगे और धुनों में वाद्ययंत्रों की बहुलता बढने लगी गीतों की उम्र कम होने लगीं शोर ही संगीत का पर्याय सा हो गया

Saturday, September 16, 2006

सुभाष घई का नया प्रयोग

Subhash Ghaiसुभाष घई प्रायः जाने माने कलाकारों को लेकर ही अपनी फिल्में बनाया करते थे| पर अपनी फिल्म हीरो (1983) में जैकी श्राफ, जिन्होंने केवल एक फिल्म स्वामीदादा में एक छोटा सा रोल किया था और जिनके विषय में बहुत कम लोग ही जानते थे, को मुख्य भूमिका दी थी| हीरो फिल्म में नायिका की भूमिका भी उन्होंने मीनाक्षी शेषाद्रि, जिनकी पहली फिल्म पेंटर बाबू फ्लॉप हो चुकी थी, को दिया| यह उनका जोखिम लेने वाला एक नया प्रयोग था| पर उनके इस नये प्रयोग को आशातीत सफलता मिली और हीरो सुपर हिट फिल्म साबित हुई| इस संदर्भ में यह बताना भी लाजिमी होगा कि फिल्मों में आने के पहले जैकी श्राफ 'भाई' हुआ करते थे|

सुभाष घई को परिचय की आवश्कता नहीं है| कौन नहीं जानता सुभाष घई के बारे में| वे एक जाने माने निर्माता और निर्देशक हैं| पर शायद कम ही लोग जानते हैं कि सुभाष घई फिल्मों मे बतौर हीरो बनने आये थे| सुभाष घई फिल्म उमंग (1970) में हीरो बने भी पर फिल्म चल नहीं पाई| सफल हीरो वे कभी भी न बन सके| अतः उन्होंने फिल्म निर्माण व निर्देशन का कार्य आरंभ कर दिया| उन्होंने फिल्म विश्वनाथ, सौदागर आदि के लिये पटकथा भी स्वयं लिखा है| निःसंदेह वे एक सफल निर्माता व निर्देशक हैं| ऐसा लगता है एक सफल हीरो न बन पाने की उन्हें हमेशा ही रंजिश रही है और अपनी फिल्मों में शायद इसी लिये वे अपनी एक झलक अवश्य दिखाते हैं|

(अनुज विमल अवधिया के सौजन्य से)

Friday, September 15, 2006

मोहम्मद रफ़ी ने किशोर कुमार के लिये गाना गाया

जी हाँ, प्रख्यात गायक किशोर कुमार के लिये भी रफ़ी साहब ने गाने गाये हैं| एक अच्छे गायक और अभिनेता होने के साथ ही साथ निर्माता, निर्देशक और संगीतकार भी थे किशोर कुमार| अपने गाने स्वयं ही गाया करते थे वे| पर संगीतकार ओ.पी. नैयर रफ़ी साहब के की आवाज से इतने प्रभावित थे कि फिल्म रागिनी (1958) के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत 'मन मोरा बावरा गाये.....' को किशोर कुमार के लिये रफ़ी साहब से ही गवाया था| सन् 1958 में ही फिल्म शरारत में भी मोहम्मद रफ़ी ने फिर से एक बार किशोर कुमार के लिये गाना गाया था| गीत के बोल हैं 'अजब है दास्ताँ तेरी ऐ जिंदगी.....'| और आखरी बार सन् 1964 में मोहम्मद रफ़ी ने फिल्म बाग़ी शहज़ादा में भी किशोर कुमार के लिये गाया था (इस बात का खेद है कि गीत के बोल मुझे याद नहीं है)|

महान गायक थे मोहम्मद रफ़ी साहब| बेहिसाब गाने गाये हैं उन्होंने| गायन के लिये 23 बार उन्हें फिल्म फेयर एवार्ड मिला था| उनके कंठस्वर से ही प्रेरणा पा कर ही सोनू निगम आज एक सफल गायक बन पाये हैं|

Thursday, September 14, 2006

जायें तो जायें कहाँ.....

बर्मन दा (एस.डी. बर्मन) फिल्म टैक्सी ड्राइव्हर के संगीत निर्देशन का कार्यभार सौंपा गया था| उन दिनों जयदेव उनके सहायक (Assistant Music Director) हुआ करते थे| बर्मन दा उस फिल्म के 'गीत जायें तो जायें कहाँ...' की धुन बनाने में जुटे थे| गीत का मुखड़ा तो बन गया था पर पद नहीं बन पा रहा था| अनेक बार पद बना कर खुद ही उसे रिजेक्ट कर चुके थे| लगभग दो महीनों से भी अधिक समय गुजर गया था और ऐसा पद बन ही नहीं पा रहा था जिससे बर्मन दा संतुष्ट हो पायें| बर्मन दा और जयदेव उस रोज जयदेव के घर में हारमोनियम-तबला लेकर बैठे थे ये निश्चय करके कि आज पद बना कर ही छोड़ेंगे| एक बजे रात तक भी संतोषजनक धुन नहीं बन पाई और बर्मन दा अपने घर चले गये ये कह कर कि छोड़ो जयदेव, कल देखेंगे| पर जयदेव को चैन नहीं था, अकेले हारमोनियम लेकर बैठ गये| अनेक बार पद बनाया और स्वयं ही उसे अस्वीकार कर दिया| पूरी रात बीत गई| सुबह होते होते एक धुन ऐसी बन गई जो कि बर्मन दा को पसंद आये| तुरंत गाड़ी निकाल कर बर्मन दा के घर पहुँच गये| उन्हें सोते से जगा कर धुन सुनाई| धुन सुनते ही बर्मन दा ने स्वी खुशी से जयदेव को गले से लगा लिया और उस धुन को स्वीकार कर लिया| इस प्रकार बनी ये धुन|

जायें तो जायें कहाँ
समझेगा, कौन यहाँ, दरद भरे दिल की जुबाँ

मायूसियों का नगमा है जी में
क्या रह गया है अब जिंदगी में
सीने में गम, दिल में धुआँ
जायें तो जायें कहाँ.....

उनका भी गम है, अपना भी गम है
अब दिल के बचने की, उम्मीद कम है
इक कश्ती, सौ तूफाँ
जायें तो जायें कहाँ.....

तो ऐसे अथक परिश्रम किया करते थे हमारे संगीतकार|

Wednesday, September 13, 2006

ऐसा भी हुआ था

कमाल अमरोही की प्रसिद्ध फिल्म पाकीज़ा सन् 1972 में रिलीज़ हुई थी| पाकीज़ा में मीना कुमारी ने लाजवाब अभिनय किया था| फिल्म को टाकीजों में दिखाया गया पर लोगों ने उसे पसंद नहीं किया और हफ्ते भर में ही उतर गई| कुछ ही दिनों के बाद मीना कुमारी का स्वर्गवास हो गया| उनकी मृत्यु के पश्चात पाकीज़ा का प्रदर्शन फिर से एक बार टाकीजों मे किया गया| इस बार उसी फिल्म को लोगों ने खूब पसंद किया और उसे आशातीत सफलता मिली| मीना कुमारी की बात चली है तो याद आया कि गुलजार की फिल्म मेरे अपने, जिसमें मीना कुमारी की यादगार भूमिका थी, पूरी बन चुकी थी पर फिल्म की डबिंग के पहले ही मीना कुमारी का स्वर्गवास हो गया| फिल्म में मीना कुमारी की आवाज की डबिंग उसके डुप्लीकेट से कराई गई|

पाकीज़ा के जैसे ही प्रख्यात गीतकार शैलेन्द्र की फिल्म तीसरी कसम (1966) के साथ भी हुआ| तीसरी कसम फ्लॉप हो गई| इस बात का शैलेन्द्र को इतना सदमा लगा कि उनका स्वर्गवास ही हो गया| शैलेन्द्र के स्वर्गवास के बाद तीसरी कसम का पुनः प्रदर्शन हुआ और इस बार फिल्म को सफलता मिली| शैलेन्द्र अपनी सफलता स्वयं नहीं देख पाये|

Tuesday, September 12, 2006

और बैठक में ही बन गया वो गाना

अच्छी मित्रता थी साहिर लुधियानवी, जयदेव और विजय आनंद में| बात सन् 1961 से भी पहले की है| दिन भर के काम के के बाद बैठे थे तीनों यूँ ही थकान उतारने| गप-शप के बीच जयदेव ने ये शेर सुनायाः

हमको तो गर्दिशेहालात पे रोना आया
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया

शेर सुना कर जयदेव ने साहिर से कहा कि इस शेर को कहने वाला शायर एक प्रश्न छोड़ गया है और तुम्हें उसका जवाब देना है| साहिर भी कम नहीं थे| उसी बैठक में ही उन्होंने जवाब देने के लिये एक पूरा गजल बना डाला और जयदेव को सुनाया जो इस प्रकार हैः

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हरेक बात पे रोना आया

हम तो समझे थे कि हम भूल गये हैं तुमको
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया

किस लिये जीते हैं हम किसके लिये जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया

कौन रोता है किसी और के खातिर ऐ दोस्त
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया

जयदेव ने उनके इस गजल की खूब तारीफ़ की और कहा कि वे इसके लिये धुन अवश्य बनायेंगे| विजय आनंद ने भी साहिर से कहा कि वे इस गीत को अपने निर्देशन वाली किसी न किसी फिल्म में अवश्य लेंगे| कुछ दिनों बाद ही विजय आनंद को फिल्म हम दोनों के निर्देशन का काम सौंपा गया और अपने वादे के मुताबिक उन्होंने उस फिल्म में गीत को ले लिया| तो इस प्रकार बातों बातों में ही बन गया था ये गजल

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