Friday, October 23, 2009

सिनेमा का आक्रामक रूख

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-विनोद अनुपम
क्या सिनेमा पर किसी गंभीर बातचीत की गुंजाइश है? अपने सिनेमा के संदर्भ में इस सवाल का सीधा-सा जवाब है, नहीं! अपना याने भारतीय मुख्यधारा खासकर हिन्दी, कमोबेश तमिल, बांग्ला, मलयालम और तेलगू, का भी सिनेमा आज एक ‘कलाकृति’ की बजाय उपभोक्ता उत्पाद के रूप में हमारे सामने है। ‘यूज एण्ड थ्रो’ की तरह ‘देखा और भूल गया’।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की शैली में डेविड धवनों जैसे मुख्यधारा के सिनेमा के नये मसीहाओं ने सुनियोजित तैयारी के साथ अपनी फिल्मों का मकड़जाल फैलाया है। आक्रामक प्रचार के साथ सारे देश में एक साथ अपनी फिल्में पहुंचा दो और दर्शकों के सोचने और शेयर करने के पहले उनकी जेबें खाली करवा लो। पूरे देश में 600 से भी अधिक सिनेमाघरों में एक साथ ये फिल्में रिलीज होती हैं और कुछेक हफ्तों में पैसे बटोरकर अपने निर्माताओं को अगले के लिए तैयार कर देती हैं।
डेविड धवनों की यह पीढ़ी सिर्फ आंखों की बेहिसाब भूख को शमित करने की कोशिश में जुटी है। अकूत कारीगरी, बेमतलब की हंसी, खूंखार हिंसा और इसके साथ संतुष्टों का एक अद्भुत स्वप्निल संसार प्रस्तुत करता ये सिनेमा यदि मानें तो क्षण भर के लिए बेचैन जिदंगी से सुकून पहुंचाने की कोशिश में लगा है, कमोबेश एक नशे की तरह जो कुछेक समय के लिए हमें सारी पीड़ा से मुक्ति देता है। ये सिनेमा का घोषित प्रभाव है, लेकिन इससे भी खतरनाक हैं उनके अघोषित प्रभाव।
कुछ साल पहले आयी एक हास्य फिल्म का सारा ताना-बाना इतनी खूबसूरती के साथ बुना गया था कि एक छोटी बच्ची के अपहरण में हिस्सेदारी कर लखपति बनने का सपना देखने वालों को दर्शकों की सारी सहानुभूति मिल रही थी। किसी तरह अपने इच्छित को पाने की कोशिश में लगे नायक आज हमें आकर्षित कर रहे हैं, खास बात यह है कि इस ‘किसी तरह’ में संघर्ष का कोई स्थान नहीं है, जो भी है बस तिकड़म, चाहे वह अपनी नायिका को पाने की हो या धन की। त्याग, सच्चाई, विनम्रता, अब पुरानी बातें हो गयी हैं, उच्छृखंलता, तिकड़म और स्वार्थ आज के नायकों के आदर्श हैं।
यह उपलब्ध है सिनेमा की इक्कीसवीं सदी में। तकनीकी रूप से हमारा सिनेमा जिनता समृद्ध होता गया, वैचारिक रूप से उतना ही खोखला या कहें घृणित। लेकिन क्या यही सिनेमा चाहिए था हमें। दादा साहब फाल्के, बिमलराय और गुरुदत्त की परिकल्पना की पराकाष्ठा क्या यही थी? नहीं! तो फिर सिनेमा पर बात तो करनी ही पडेग़ी।
बहुत दिनों तक संस्कृति के हाशिये पर सिनेमा को खड़ा रखा हमने। संप्रेषण का यह सबसे सशक्त माध्यम पता नहीं क्यों हमारे वैचारिक दायरे में शामिल ही नहीं हो सका। साहित्यकारों, विचारों, संस्कृतिकर्मियों की यह निरपेक्षता सिनेमा को कला संस्कृति की सभी परिभाषाओं-नियंत्रणों से मुक्त करती रही। किसी भी नियंत्रण से मुक्त इस कला विद्या की अकूत क्षमता को पहचानते हुए पहले व्यवसायियों धीरे-धीरे अपराधियों ने इस पर अपना कब्जा जमाया।
सिनेमा जो एक सामूहिक कला का प्रतीक था, अवैध धन के भद्दे प्रदर्शन का प्रतीक बन गया। समर्पण और अपने जीवन से फिल्में बनाने वाले फिल्मकार या तो उनके साथ दौड़ में शामिल हो गये या फिर हाशिये पर बेहतर दिनों की प्रतीक्षा करते हुए अपनी छोटी-छोटी कोशिशों से सन्नाटे तोड़ने की कोशिशों में लगे हैं। लेकिन आशा की किरण कहां है?
हमारी ओर से मौन है, सरकार की ओर से असहयोग है, कलाकारों को पैसे चाहिए सिनेमाघरों के मालिकों को अपनी टिकट बिक्री से मतलब है, फिर गोविन्द निहालानी को ‘तक्षक’ और कुंदनशाह को ‘हम तो मोहब्बत करेगा’ बनाने से भला हम कैसे रोक सकते हैं।?
सरकार की किसी भी नीति का लाभ तय रूप से ऊपरी तबकों के लिए ही होता है। सिनेमा को उद्योग का दर्जा देने की सरकार की बहुप्रतीक्षित घोषणा ने भी समृद्ध किया तो सिर्फ बड़े फिल्मकारों को ही। अच्छे फिल्मों के प्रोत्साहन की सारी कोशिशें दिनों दिन बंद होने के कगार पर हैं। राज्य सरकारों के वित्त निगम तो दिवालिया हैं ही, एन.एफ.डी.सी. का भी वर्षों से कोई प्रयास नहीं दिख रहा, वृत्तचित्रों की परंपरा भी बंद होने के कगार पर है।
इससे पहले कि सिनेमा अपनी सारी मूल भावनाओं का परित्याग करते हुए सिर्फ भद्दे मनोरंजन का साधन बनकर रह जाय, जरूरी है कि हम हस्तक्षेप करें। नहीं तो राजनीति की तरह सिनेमा भी ‘लुम्पनों’ के हाथ का खिलौना बनकर रह जायेगी और हम सदा की तरह सर धुनते रहेंगे।

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