Monday, September 26, 2016

‘उमराव जान अदा’ उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहाँ हमने.... नीरा जलक्षत्रि

‘उमराव जान अदा’  उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहाँ हमने
                                                                                                                                                                                       नीरा जलक्षत्रि

ये तवायफें दिल बहलाने के साज़-ओ-सामान हैं यूँ तो  
पर नाज़-ओ-अदा नखरों के पीछे स्याह अन्धेरें लिपटे हैं
हर तरफ से इश्क़ का दम भरते देखो तो सितमगर आते हैं
सब देखें इनका मुस्काना, ये दर्द समेटे सिमटे हैं






 “उमराव जान ” फिल्म जब पहली बार देखी थी तब सोचा नहीं था कि उस पर कभी लिखना होगा | खास कर उस फिल्म की ग़ज़लों ने पहली-पहल बार मुरीद बना दिया था | एक इश्क सा हो गया था इस फिल्म की ग़ज़लों और आशा जी की आवाज़ से | ग्यारहवीं  में  पढने वाली लड़की ने विविधभारती पर उससे भी पहले कई बार ये ग़ज़लें सुनी थी पर उस आवाज़ और लफ़्ज़ों के दर्द को महसूस पहली बार किया था | कुछ शेर तो जब भी याद आते थे दिल की हालत अजीब हो जाया करती थी ...मसलन- बुला रहा है कौन मुझको चिलमनों के उस तरफ, मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है | ये किस मक़ाम पर हयात मुझको लेकर आ गई, न बस ख़ुशी पे है जहाँ, न गम पे इख़्तियार है | ‘जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने, इस बहाने से मगर देख थी दुनिया हमने | तुझको रुसवा न किया खुद भी पशेमां न हुए, इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने | ये ग़ज़ले और उस आवाज़ का जादू ही था कि जब किशोरवय में पहली बार ये फिल्म देखी | तो इसका असर लम्बे वक़्त तक तारी रहा और कुछ सवाल ज़ेहन में उभरे कि क्यों औरतों को यह समाज अपने मनोरंजन के लिए हाशिये पे डाल देता है? क्यों उन्हें अपनी मर्ज़ी से इश्क़ तो क्या जीने का भी इख़्तियार ये समाज नहीं देता ?  तवायफ़ या वैश्या कही जाने वाली स्त्री से पहली बार एक जुड़ाव और दर्द महसूस किया | कई सवाल तब भी उठे थे ज़ेहन में, जो वक़्त के साथ और ज्यादा गहराई से मन में घर करते गए |
जैसा कि रुसवा का कहना है कि उमराव जान ‘अदा’ ने खुद उनसे अपना जिंदगीनामा कहा और वो सब किस्से सुनाये जो उनके साथ गुज़रे | पर कई बार लगता है कि किस्सागोई के अंदाज़े-बयां में सुनाई गई इस दास्ताँ में क्या सच में उन्होंने अपना दिल खोल कर रुसवा के सामने रख दिया होगा | या जो उनके साथ पेश्तर गुज़रा वो बस वाकया दर वाकया यूँ ही सुनाया होगा, जैसा कि अक्सर लोग सुनते–सुनाते हैं दूसरों की कहानियां | क्या ढलती उम्र में सुनाई गई उस दास्ताँ में वो दर्द भी शामिल हुआ होगा, जो कि सबको सुनाया नहीं जाता | क्या आँख से ढलके आसुंओं के परदे में छिपे दर्द को मिर्ज़ा महसूस कर पाए होंगे? याकी कुछ दर्द जो औरत सिर्फ औरत से बाँट पाती है, जानती है कि मर्द शायद न समझ सके, क्या वो सब कहा होगा उमराव ने ? और अगर कहा भी होगा तो क्या मिर्ज़ा लिख पाए होंगे वो सब ? कहाँ – कहाँ सेंसरशिप की कैंची चली होगी ? और कौन से वाकये गैरज़रूरी समझ के छोड़ दिए होंगे ? बहुत से सवाल उठ रहे हैं मन में |
फिर नज़र इसी उपन्यास पर बनी फिल्म पर जाती है | ‘उमराव जान’ मुज़फ्फर अली द्वारा बनायीं गई खूबसूरत बायोपिक है | जो मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ के आत्मकथात्मक उपन्यास उमराव जान अदा पर आधारित है | यह फिल्म साहित्य पर बनने वाली चंद खूबसूरत फिल्मों में से एक है | मुज़फ्फर अली ने मिर्ज़ा हादी ररुस्वा के उपन्यास को अधिक संवेदनशीलता के साथ पुनसृजित किया  है | कुछ नयें घटनाक्रमों को मूलकथा की लय और गति के साथ तार्किक तरीके से जोड़ा है | इसमें लखनऊ की तहज़ीब, अदब, नफासत, नज़ाकत और यहाँ तक की उस आबो-हवा को भी फिल्म में कैद करने की कोशिश की गई है जो एक वक़्त अवध की पहचान थी | पहली नज़र में देखने तो यह रुसवा के उपन्यास पर बनी एक खूबसूरत फिल्म लगती है | जबकि उर्दू अदब के शुरूआती उपन्यासों में शुमार रुसवा का उपन्यास फिल्म की तुलना में कुछ कम परिपक्व लगता है, पर जब आप उसको गौर से देखते हैं तो लगता है कि उपन्यास में किस्सागोई की शैली में चलते-चलते कही गई बात इतनी भी हलकी नहीं है कि उसे यूँ ही छोड़ दिया जाये | हालाँकि मिर्ज़ा हादी रुसवा ने जिस तरह से ‘अदा’ की कहानी सुनाई है उसमें वर्णनशैली की प्रधानता ज्यादा है और इतना ही नहीं उर्दू अदब के शुरुआती सालों में लिखे गए इस उपन्यास में कई कमजोरियां भी पकड़ में आती है जैसे- कई गंभीर सवालों को मिर्ज़ा बेहद चलताऊ ढंग से कह कर आगे बढ़ जाते हैं जबकि वहां ठहरकर बात कहने की काफी गुंजाइश थी | मसलन- एक जगह उमराव कहती हैं –‘उनके यहाँ रहकर मुझे मालूम हुआ कि शरीफ़ आदमियों में छुपे-छुपे किस तरह एक-दूसरे की बहू-बेटियों से वास्ता रहता है और इस तरह से शरीफ़ मर्द और औरत हमें गाली देती हैं ! मेरा तो एक–एक बाल गुनाहगार है ; मगर वहां कम गुनाह नहीं होते |’ यानी कहीं न कहीं उमराव ने उन सभी सफेदपोश मर्द–औरत को कटघरें में खड़ा किया था और पूछा था कि तुम हमसे किस तरह अलग हो ? उनीसवी शताब्दी में इस तरह का सवाल उठाना कम हिम्मत की बात नहीं थी, मिर्ज़ा के उपन्यास में उमराव कई सवाल करती नज़र आती हैं मसलन – पुरुषों की रंजिश का ठीकरा आखिर औरत के माथे ही क्यों फूटता है ? सफेदपोश मर्द–औरत छुप-छुपा के वो सब करते हैं फिर हमीं को तवायफ़ क्यों कहा जाता है ? और ये दर्द, जो सच भी था कि उम्र भर इश्क़ की बाज़ी  में जीत –हार का खेल खेलने वाली इन तवायफों को कभी सच्चा इश्क़ हासिल नहीं होता | उन्नीसवीं शताब्दी में लिखी गई इस कहानी में भी यह खलिश साथ-साथ चलती है कि इश्क़ तो पहले की पीढ़ी किया करती थी आज के इश्क़ में वो बात कहाँ ? उपन्यास में एक जगह खानम साहब कहती हैं – ‘जाओ छोकरियों, इस ज़माने की मुहब्बतें किस तरह की हैं, एक हमारा ज़माना था, देखो मिर्ज़ा साहब को, जवानी में मुझसे आशनाई हुई, माँ-बाप ने शादी करनी चाही, आप मांझे का जोड़ा पहनके आये, मैंने जोड़ा फाड़ फेंका और हाँथ पकड़ के बैठ गई कि जाने न दूंगी, उस दिन से घर नहीं गए, कहो कोई है ऐसा तुम्हारा भी ? हम सबने सर झुका लिया |’ बात में दम तो है कि कहाँ वो ज़माना था कि तवायफ़ से भी मुहब्बत निभाते थे लोग और हद है इसी के बरक्स मुझे आज-कल के इश्क़ में बने एमएमएस कांड याद आ रहे हैं | बहरहाल बात उमराव जान अदा की, इसी उपन्यास में एक जगह वो इस जीवन के भयावह अंत के भी किस्से सुनाती हैं –‘लखनऊ के गली-कूचों में जो बूढी फ़कीरानियाँ पड़ी रहती हैं उनमे से ज़्यादातर रंडियां हैं और वे रंडियां, जो कभी ज़मीन पर पैर न रखती थीं....जहाँ जाती थीं लोग आँखें बिछाते थे ...आज उनकी तरफ कोई आँख उठा के नहीं देखता आज मांगे भीख नहीं मिलती |’ दिखावे और साहित्यिक चोरी पर भी वो ज़बरदस्त तंज़ कसती हैं –‘एक साहब लखनऊ के एक मशहूर शायर की तमाम ग़ज़लों का मसौदा चुराके हैदराबाद ले गए और उन्हें अपनी कहके सुनाते फिरे, बड़े-बड़ों से वाहवाही ली | मगर समझने वाले समझ गए | लखनऊ ख़त लिखे गए | असल शायर को मालूम हुआ, वह हंसके चुप हो रहे | अब तो लोगों ने लखनऊ को इतना बदनाम कर दिया है कि अपने नाम के सामने लखनवी लिखने में शर्म आती है | ऐसे-ऐसे बुज़ुर्ग हैं कि जिनकी पुश्तें देहात में गुज़र गईं, ख़ुद लखनऊ में कुछ रोज़ पढने के लिए या किसी  और सिलसिले से रह लिए और लखनवी बन गए, लखनऊ का नाम बेचकर अपना भला करने लगे | उनकी ज़बान नोच ली जाये क्यूंकि उन्हें बोलचाल आ भी जाये, लेकिन लहज़ा नहीं आता |’  इस तरह के कई वाकयों को फिल्म में स्थान नहीं मिला है | जोकि उमराव के एक दूसरे ही पहलू से रूबरू करते हैं |
मुज़फ्फर अली उमराव जान  को एक कुशल नर्तकी और शायरा के तौर पर फिल्म में प्रस्तुत करते हैं | जो हालत के कारण तवायफ़ बन गई पर परवरिश और तालीम के कारण लखनऊ की मशहूर तवायफ़ और शायरा बनी | अभिनय की दृष्टि से रेखा उमराव जान का जीवंत संस्करण लगती हैं| बहरहाल मूलकथा कुछ इस प्रकार है—‘फैजाबाद में जन्मी अमीरन जब दस-ग्यारह बरस की थी तब उनके वालिद के दुश्मन दिलावर खान ने अगवा करके लखनऊ की मशहूर तवायफ़ खानम जान के हाथों उन्हें बेच दिया | खानम जान की ही एक ख़िदमतगार हुसैनी बुआ ने अमीरन को उमराव नाम दिया और उनकी परवरिश की | यहीं रहते हुए उमराव ने गायन, नृत्य एवं उर्दू अदब की तालीम ली और बड़ी होकर उमराव जान के नाम से मशहूर हुईं | खानम जान के कोठे पर इनके अलावा खुर्शीद,बिस्मिलाह  और अमीर जान भी थीं, जो उम्र में उनसे कुछ बड़ी थीं और जैसा कि कोठों की रवायत थी कि हर तवायफ़ को किसी न किसी नवाब या अमीर की ख़िदमत में जाना पड़ता था और नवाब उस तवायफ़ के गुज़ारे-भत्ते का इन्तिज़ाम करता था | खुर्शीद, बिस्मिलाह  और अमीर जान की शान-ओ-शौक़त देखकर उमराव भी जल्दी ही बड़ी होकर उन सभी ऐश- आराम का लुत्फ़ उठाना चाहती थी | जो और तवायफों को हासिल थे बहरहाल उमराव की ज़िन्दगी में गौहर मिर्ज़ा, नवाब सुल्तान, फैज़ अली जैसे कई मर्द आये और गए लेकिन उनका साथ उनकी कही ग़ज़लों ने आखिर दम तक दिया |  जिसके कारण वे अपने समय की मशहूर तवायफों में शुमार हुईं |  ढलती उम्र में उनकी मुलाकात मिर्ज़ा हादी रुसवा से हुई जो उनसे मिलकर बहुत प्रभावित हुए और यह उपन्यास लिखा  ‘उमराव जान अदा’ |
मुज़फ्फर अली फिल्म में कुछ नए दृश्यों की रचना करते हैं जिससे फिल्म अधिक प्रभावशाली बन गई है जैसे – अमीरन का अपने छोटे भाई के साथ खेलना, अमीरन और रामदेई का एक-साथ मोलभाव होना | अमीरन का खानम जान के कोठे से भागने की कोशिश करना और सपने दिलावर खां को देखकर डर जाना, ये दृश्य फिल्म में उमराव के चरित्र को अधिक तार्किक बनाते हैं | जबकि इन्ही घटनाओ का उपन्यास में न होना उसे कमज़ोर बनाता है, जैसे ये बात काफी अजीब लगती है कि अमीरन खानम जान के कोठे पर आने के बाद अपने माँ-बाप को भूल गई और वहां की ऐश–ओ-आराम की ज़िन्दगी में रम गई | संगीत की तालीम लेने वाला दृश्य भी फिल्म में अवध की गंगा-जमुनी तहजीब को साकार कर देता है | उपन्यास की तुलना में फिल्म में निर्देशक ने जिस शिद्दत से उमराव को प्यार की तलाश में भटकते हुए दिखाया है और अपनों से मिलने तड़प को जिस खूबसूरती से शहरयार ने लफ़्ज़ों में बांधा है | चाहे ‘वह जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने’ हो या ‘ये क्या जगह है दोस्तों ये कौन सा दायर है’ ? अपने आपमें कमाल है | हालाँकि इस कमाल में चार चाँद खैयाम साहब की मौसिक़ी ने लगाया है |  फ़िल्म में सिनेमेटोग्रेफी गज़ब है हर ग़ज़ल और हर दृश्य को जिस टेक्स्चर और एंगल्स से फिल्माया गया है उससे वो बहुत इम्पेक्टफुल बन गए हैं |  फिल्म में कई जगह उमराव(रेखा ) की आँख में आये आसुंओ को आँखों से न ढलकने देकर निर्देशक उसके दर्द की शिद्दत को और गहरा कर देते हैं |  दरअसल फिल्म एक ज़माने में तहज़ीब और अदब का केंद्र रहे तवायफघरों के जीवन की खूबसूरती और त्रासदी दोनों को सामने लाती है |
उमराव जान फिल्म में मुज़फ्फर अली ने 1857 के आज़ादी के आन्दोलन को भी कुछ एक दृश्यों बेहद असरकारी तरीके से जीवित कर दिया है जैसे – बड़े इमामबाड़े के मुख्य दरवाज़े पर बने पक्षी का चक्कर खाता क्लोज़-अप , जर्जर हालत में रेजिडेंसी का लॉन्ग शॉट, घोडा-गाड़ी से गुज़रते काफिले का दृश्य और बैकग्राउंड में अलविदा –अलविदा का सामूहिक स्वर ये सब मिल कर विस्थापन और एक दौर के ख़त्म होने के दर्द को तीखा कर देते हैं | सच है कि फिल्म के ढाई से तीन घंटे में सब समेटना मुमकिन नहीं पर ये भी सच है कि विजुअल में जो  कुछ सेकेंड्स में कहा जा सकता है उसे कहने के लिए साहित्य में कई पृष्ठ भरे जाते हैं |

बहरहाल इस सबके बावजूद चाहे मूल उपन्यास हो या फिल्म दोनों ही औरत की खूबसूरती, गायकी, नाज़-ओ-अदा, कोठे की रंगीनियों में खोकर कही रह जाती है |  जबकि मेरे ख्याल से ये आपसी रंजिश का शिकार हुई एक ऐसी औरत का सफ़रनामा है जो बेहतरीन शायरा होने के साथ-साथ एक अदद बेचैन रूह की मालिक भी है और  जिसे ज़िन्दगी क़दम दर क़दम न केवल आज़ाद और बेख़ौफ़ बनाती चलती है बल्कि ये हौसला भी देती है तुम उन हज़ारों-हज़ार औरतों से बेहतर हो, जो इज्ज़त और सुहाग के नाम पर घरों में कैद और तुमसे बदतर ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं | उपन्यास के आखिर में उमराव तंज़ करते हुए तमाम औरतों से कहती भी हैं– ‘खुदा चाहे मारे, चाहे जिलाए, मुझसे परदे में घुटकर तो न बैठा जायेगा | मगर मै पर्देवालियों के लिए दिल से दुआ मांगती हूँ, खुदा उनका राज-सुहाग कायम रखे और रहती दुनिया तक उनका पर्दा रहे |’ आखिर में लिखे इस वाक्य के बाद मुझे देर तक उमराव के ठहाके की आवाज़ सुनाई देती रही | काश कि मिर्ज़ा साहब और मुज्ज़फर अली भी ये ठहाका सुन लेते तो कुछ और बयां करते उमराव के बारे में |