Saturday, October 24, 2009

सिनेमा में भी दलित हाशिए पर ही है

सिनेमा में भी दलित हाशिए पर ही है। इसका एक ज्वलंत प्रमाण डा़.भीमराव अम्बेडकर पर बनी फिल्म है जिस पर यह आरोप लगा कि उसमें अम्बेडकर की चरित्र हत्या का प्रयास बड़े पैमाने पर हुआ है।

सिनेमा में अंबेडकर

अम्बेडकर पर एक फिल्म ‘भीम गर्जना’ नाम से बनी है जबकि दूसरी फिल्म अम्बेडकर शीर्षक से मराठी फिल्मकार जब्बार पटेल द्वारा बनायी गयी है। जब्बार पटेल मराठी सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर हैं और उनके द्वारा बनायी जाने वाली किसी फिल्म से यह अपेक्षा नहीं थी कि उसमें तथ्यात्मक गड़बड़ियॉ होंगी लेकिन एनएफडीसी, सामाजिक एवं सहकारिता मंत्रालय, भारत सरकार और महाराट सरकार के सहयोग से बनी यह फिल्म देखकर कई स्थानों पर यह बात समझ में आयी कि फिल्म में तथ्यात्मक गड़बड़ियॉ सचेत या अचेत तौर पर की गयीं हैं।

जब्बार पटेल भी महाराष्ट्र के हैं और अम्बेडकर भी। अम्बेडकरवादी आन्दोलन महाराष्ट्र में बहुत ताकतवर भी हैं ऐसे में मराठी लोग जितना अम्बेडकर के जीवन और उनके संघर्ष से वाकिफ हैं उतना भारत में और कोई नहीं। फिर भी कई स्थानों पर फिल्म में गड़बड़ियॉ हुई हैं। इस पर मैं विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा।

कुछ और फिल्मों में दलित प्रश्न

फिलहाल मैं अभी सिनेमा में दलित प्रश्न को ही आगे बढ़ाते हुए कुछ ऐसी फिल्मों की चर्चा करना चाहूंगा जिनका जिक्र मैंने पहले नहीं किया है। ऐसी फिल्मों में सावन कुमार की फिल्म ‘सौतन’ का जिक्र किया जा सकता है। जिसमें फिल्म की नायिका पद्मिनी कोल्हापुरी को दलित दिखाया गया है। उसके पिता की भूमिका में श्रीराम लागू ने दलित की पीड़ा को साक्त अभिव्यक्त दी है। ‘1942 ए लव स्टोरी’ में भी मसक से पानी छिड़कता पात्र दलित है तथा गुलजार की ‘हू-तू-तू’ में नाना पाटेकर [^] को लोक कवि और महार यानि भंगी जाति का दिखाया गया है।

गौतम घोष की फिल्म ‘पाथ’, प्रकाश झा की फिल्म ‘दामुल’ और यूआर अनन्तमूर्ति की कहानी घटश्राद्ध पर ‘दीक्षा’ नाम से बनी फिल्म, बंगाली से हिन्दी [^] में अनुदित फिल्म ‘अर्न्तजलीय यात्रा’ तथा प्रेमचन्द की कहानी ‘गोदान’, ‘कफन’, ‘दो बैलों की आत्मकथा’, ‘सदगति’ और ‘गबन’ पर बनी फिल्मों ने दलित प्रश्न को यथासंभव इन कृतियों की अनुरूप प्रस्तुत किया गया है। जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे साक्त फिल्म ‘बैंडीट क्वीन’ ही दिखायी देती है जो साधारण दलित स्त्री से दस्यु सुन्दरी और फिर सांसद बनी फूलन देवी के जीवन पर आधारित थी।

हाशिए पर ही दलित

मुझे इसके अतिरिक्त कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं दिखायी दी, हो सकता है कुछ और ऐसी फिल्में हों जिनमें दलित प्रश्न को ठीक से छुआ गया हो। इस पूरे सर्वेक्षण से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचना [^] हूं कि सिनेमा में दलित उसी तरह हाशिए पर हैं जैसे साहित्य व इतिहास में।

1960 में दलित साहित्य का प्रारम्भ हुआ तबसे लेकर अब तक कई दलित साहित्यकार सामने आये हैं जिनकी कृतियॉ चर्चा के केन्द्र में रही हैं किन्तु सिनेमा में जिसे साहित्य का विस्तार कहा जाता है इस तरह का आन्दोलन दिखायी नहीं देता ना ही कोई उल्लेखनीय फिल्मकार उभर का सामने आया है।

दलित भी बनेगा निर्णायक

सिनेमा की एक खास बात यह है कि सिनेमा मास मीडिया और मास मनोरंजन है। उसका ‘मास’ होना उसकी प्रकृति में वह एक साथ समाज के विविध लोगों बच्चे, बूढ़े, धनी, गरीब, औरत, मर्द, हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण और शूद्र सबको उपलब्ध होता है। सिनेमा हाल के अंधेरे में व्यक्ति अनाम हो जाता है- वह 'मास' हो जाता है और तय करता है कि फिल्म सफल होगी या असफल।

इसलिए यह कला उ़द्योग मास को कितना ही मैनुप्लेट करे मास की निर्णायकता पूरी तरह कभी समाप्त नहीं हो सकती। जैसे साहित्य [^] में पाठक निर्णायक होता है वैसे ही या उससे भी अधिक सिनेमा में दर्शक ‘बाक्स आफिस’ निर्णायक होता है। पाठकों की तरह दर्शकों को भी भटकाया, बरगलाया जाता है।

कुल मिलाकर सिनेमा को दर्शक ही बना सकता है और वही बिगाड़ भी सकता है। दलित भारतीय समाज का बहुसंख्यक हिस्सा है इसलिए वही बाक्स आफिस का निर्णायक देर-सबेर बनेगा और तब दलित प्रश्न को सिनेमा में भी टाला नहीं जा सकेगा। [चंद्रभूषण 'अंकुर' जाने-माने फिल्म आलोचक हैं और सिनेमा तथा इसके सामाजिक प्रभावों के बारे में लेख व टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं।

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